Friday, March 20, 2009

दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी लादेन नहीं, अमेरिका है- 1


-ये सच्चाइयां उनके गले नहीं उतरेंगी, जो अमेरिका के पैसे, अमेरिकापरस्त समूहों, संस्थाओं के भरोसे पल रहे हैं.

-ये सच्चाइयां उन्हें परेशान कर सकती हैं, जो अमेरिकी प्रशासन बुश को दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी मानने से इनकार करते रहे हैं.
-ये सच्चाइयां उनके चेहरे से भी नकाब खींच देंगी, जो भारतीय मीडिया को शुद्ध धंधेबाज कहने और मानने से परहेज करते हैं.
-ये सच्चाइयां उन्हें भी विचलित कर सकती हैं, जो लादेन और तालिबानी समूहों को इस्लाम का उद्धारक मानने की भूल करते जा रहे हैं.

......और आज इन सच्चाइयों को एक बार फिर सार्वजनिक कर देना इसलिए भी बहुत जरूरी है कि मुंबई अटैक, स्यात, पाकिस्तान, अफगानिस्तान की खूनी और राजकीय हलचलों के लगातार सुर्खियों में बने रहने के कारण 11 सितंबर के आतंकी अटैक को सामने रखकर अमेरिका और उसके समर्थक देशों की वास्तविक करतूतों के पीछे छिपी तथ्यता को क्रमशः उजागर किया जाए. और सिद्ध कर दिया जाए कि दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी लादेन नहीं, अमेरिका है-

11 सितंबर का हमला
1812 के युद्ध के बाद अभी तक संयुक्त राज्य अमेरिका की राष्ट्रीय सीमा के अंदर न कभी इस तरह का हमला हुआ था, न ही कभी इस पर कोई आंच आई. 7 दिसंबर 1941 को अमेरिका के उपनिवेशों में स्थित सैनिक अड्डों पर हमले हुए थे, न कि अमेरिका की राष्ट्रीय सीमा के अंदर, जो हमेशा अक्षुण्ण रही है. अमरीका हालांकि हवाई को अपना अंग कहना पसंद करता है, लेकिन दरअसल वह उसका उपनिवेश है. बीती सदियों में अमेरिका ने दसियों लाख मूल निवासियों (रेड इंडियनों) का संहार किया है, आधे मेक्सिको पर अपना कब्जा जमा लिया है, पूरे इलाके में हिंसक हस्तक्षेप किए हैं और हजारों-हजार फीलिपिंस नागरिकों की हत्या करके फीलिपिंस को फतह किया है. पिछली आधी सदी में अपने ऐसे ही कामों को ताकत के बल पर पूरी दुनिया में अंजाम देता रहा है. इन करतूतों के शिकार बेशुमार हैं. लेकिन पहली बार 11 सितंबर को बंदूक का रुख पलट दिया गया था. इसे नाटकीय परिवर्तन भी कहा जा सकता है यानी मियां की जूती मियां के सिर या भस्मासुर ने उसे दौड़ा लिया है.
यूरोप के मामले में भी, थोड़ा अधिक नाटकीय ढंग से सच्चाई यही है. यूरोप ने भयानक तबाहियां झेली हैं, लेकिन आपसी और अंदरूनी जंगों के कारण इस दौरान यूरोप ने अधिकांश विश्व पर बेइंतहा जुल्म के जरिये जीत हासिल की, लेकिन इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ यूरोप पर किसी विदेशी आक्रमण का इतिहास नहीं है. इंग्लैंड पर भारत ने कभी हमला नहीं किया. न बेल्जियम पर कांगो ने, न इटली पर इथोपिया ने, न ही अल्जीरिया ने फ्रांस पर कभी कोई हमला किया. और इसलिए 11 सितंबर का आतंकवादी अपराध पूरे यूरोप के लिए भी एक जोरदार झटका है.
11 सितंबर के हमले के बाद वॉल स्ट्रीट जर्नल ने अमेरिका से जुड़ाव रखने वाले बैंकर, व्यावसायिक और व्यापारियों जैसे धनी मुसलमानों के मत लिये थे. उन लोगों में अमेरिका द्वारा निरंकुश और कट्टर राज्यों का सहयोग करने और राज्यों के स्वायत्त विकास और वहां के राजनीतिक लोकतंत्र के विकास की प्रक्रिया में वॉशिंगटन की दखलंदाजी और रोड़े अटकाने वाली नीतियों को लेकर क्षोभ और गुस्सा साफ दिखा था. उनका कहना था कि अमेरिका उत्पीड़क सरकारों को शह दे रहा है. यहां की गरीब और बदहाल बहुसंख्यक आबादी का भी यही मानना है. वे संसाधनों और संपत्ति को पश्चिमी देशों, पश्चिमपरस्त अभिजातों और भ्रष्ट-जालिम शासकों के हाथों में जाते हुए बेबसी से देख रहे हैं लेकिन इसे बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं.
11 सितंबर के हमले के लिए अमेरिका ने पहले तो धर्मयुद्ध शब्द का इस्तेमाल किया, लेकिन इस पर फौरन उंगली उठ जाने से इस्लामी दुनिया में मौजूद उसके समर्थकों के बीच खलबली मच जाती, इसलिए उसने अपनी इस गंभीर गलती को सुधारते हुए हमले को युद्ध का नाम दे दिया. जैसा कि यह भी कहा जाता है, 11 सितंबर के हमले के मामले में मानवतावादी हस्तक्षेप की संज्ञा का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है. बल्कि ज्यादा सही शब्द है इंसानियत के विरुद्ध अपराध. अपराधियों को सजा देने के लिए हमारे पास कानून है. कायदा है कि आततायियों की पहचान की जाए, उनके अपराधों को साबित किया जाए. लेकिन इसके लिए ठोस पक्के सुबूतों की जरूरत होगी. इस प्रक्रिया में कुछ बेहद खतरनाक सवाल अपनी कब्रों से बाहर निकलकर सामने खड़े हो जाएंगे. इनमें एक सबसे स्पष्ट प्रश्न यह होगा कि आज से डेढ़ दशक पहले विश्व न्यायालय ने अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के लिए किसे दोषी ठहराया था? पश्चिमी शक्तिकेंद्र आतंकवाद की अपनी परिभाषा से मुकरते हैं. वे जैसे ही अमेरिकी कोड या सेना मैनुअल में दी गई परिभाषा को सही मानेंगे, फौरन यह स्पष्ट हो जाएगा कि अमेरिका और उसके सहयोगी ही सबसे बड़े आतंकवादी राज्य हैं. शक्ति के बड़े इस्तेमाल की धमकी को धौंस की कूटनीति कहा जाता है. न कि आतंकवाद का एक रूप. हालांकि आमतौर पर धमकी या हिंसा के इस्तेमाल को ही आतंकवादी मकसद से प्रेरित कार्य कहा जाता है. यदि यही हथकंडे बड़े और शक्तिशाली देश नहीं अपना रहे होते हैं. उस परिस्थिति की कल्पना करें, जब पश्चिमी बौद्धिक वर्ग आतंकवाद के शाब्दिक अर्थ को हू-ब-हू अपना ले, तब तो आतंकवाद के खिलाफ युद्ध का पूरा स्वरूप ही बदल जाएगा. इस सच्चाई को आज भी सम्मानित साहित्य में जगह नहीं मिल सकी है.
मध्य एशिया के बारे में अच्छी जानकारी रखने वालों को अच्छी तरह पता है कि मुस्लिम आबादी पर किया गया कोई व्यापक हमला बिन लादेन और उसके साथियों की दुआओं का असर साबित होगा और अमेरिका और उसके मित्र देशों के लिए एक शैतानी फंदा. 11 सितंबर का हमला अमेरिका समेत पश्चिमी देशों की खुफिया एजेंसियों को निश्चित रूप से झकझोर देने वाला था. 1980 के दशक में सीआईए ने पाकिस्तान और दूसरी (सऊदी अरब, ब्रिटेन) खुफिया एजेंसियों के साथ मिलकर इस्लामी चरम कट्टरपंथियों को हथियारबंद करने, उनके प्रशिक्षण और भर्ती में एक अहम भूमिका निभाई थी. उस वक्त मकसद था अफगानिस्तान में रूसी अतिक्रमणकारियों के खिलाफ जिहादी जंग की शुरुआत कराना. अब इस तरह के सारे रिकार्डों को समाप्त या गायब कर देने की जोर-शोर से कोशिशें जारी हैं. यह दिखाने की कोशिश हो रही है कि अमेरिका पूरे मामले में बिल्कुल निर्दोष है. ताज्जुब इस बात का है कि भारत समेत दुनिया भर का मीडिया भी सारे मौलिक मूल्यों को ताक पर रखकर सीआईए को उद्धृत कर रहा है.
याद करें कि अफागानिस्तान में जेहाद खत्म होने के बाद अफगानी योद्धाओं (बिन लादेन जैसे) ने अपना ध्यान चेचिन्या और बोस्निया की तरफ केंद्रित किया तो उन्हें अमेरिका का भरपूर समर्थन मिला. हैरत है कि तब भी सरकारों ने उसका समर्थन भी किया. बोस्निया में ऐसे कई इस्लामी स्वयंसेवकों को उनकी सामरिक सेवाओं के लिए सम्मानित करने के लिए उन्हें नागरिकता प्रदान की गई.
याद करें कि पश्चिमी चीन में चीनी मुस्लिम चीन की सत्ता के खिलाफ लड़ रहे हैं, जिन्हें चीन ने 1978 में अफगान सरकार के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध लड़ने के लिए भेजा था. यही चीनी बाद में अमेरिका द्वारा संगठित ताकतों के साथ मिलकर रूस द्वारा स्थापित और समर्थित नजीबुल्लाह सरकार के खिलाफ लड़े. अमेरिका नजीबुल्लाह जैसी ही पिट्ठू सरकार दक्षिण वियतनाम में चला रहा था., जहां उसने देश की रक्षा के नाम पर लंबे समय तक भयानक युद्ध चलाया. बाद में इन जेहादियों ने अपने मकसद के लिए दक्षिणी फीलीपिंस, उत्तर अफ्रीका और कई दूसरी जगहों पर अपने अभियान चलाए. धीरे-धीरे उनका रुख बदल कर सऊदी अरब, मिस्र और कई दूसरे अरब देशों की तरफ हो गया और 1980 तक अमेरिका उनका मुख्य निशाना बन गया, जिसने बिन लादेन के अनुसार सऊदी अरब पर कब्जा किया हुआ है, उसी तरह जैसे रूस अफगानिस्तान पर काबिज था.
जैसा कि इन दिनों पाकिस्तान के हालात को सामने रखकर जाना जा सकता है, इस तरह की आतंकवादी गतिविधियां सभी जगह की झक्की और उत्पीड़क सरकारों के लिए वरदान साबित होती हैं. सरकारें इन घटनाओं की आड़ में सैनिकीकरण, शक्ति के नियंत्रण, सामाजिक-लोकतांत्रिक कार्यों की दिशा को उलट देने, संसाधनों को कुछ हाथों तक सीमित कर देने और लोकवाद की सार्थकता को समाप्त कर देने के अपने मकसदों में कामयाब हो जाती हैं. लेकिन दुनिया को या ऐसी सरकारों को (अमेरिका समेत) मान लेना होगा कि ये चालें कभी कामयाब नहीं होंगी. कुछ दिनों तक वे इसका फायदा जरूर उठा सकते हैं.
11 सितंबर की घटना फिलिस्तीनियों के लिए भयानक अंजाम लेकर आएगी, उसका अंदाजा उन्हें पहले से रहा होगा. उस घटना ने इस्रायल के लिए ऐसे अवसर दे दिए, जिनसे वह बेखौफ होकर फिलिस्तीनियों पर टूट पड़ा. 11 सितंबर के कुछ ही दिन बाद इस्राइली टैंक फिलिस्तीन के शहरों में घुस गए और दर्जनों नागरिकों को मार डाले. इस तरह 11 सितंबर के बहाने एक बार फिर वहां आतंक के उस चक्के को गति दी गई, जिससे बाल्कन, उत्तरी लैंड आदि पहले से वाकिफ थे.
जहां तक मुस्लिम देशों की कट्टरता की बात है, कोई भी आदमी अरबों को कट्टर नहीं कह सकता. अमेरिका या दूसरे किसी भी पश्चिमी देश को धार्मिक कट्टरवाद से कभी कोई परेशानी नहीं रही है. सच तो यह है कि अमेरिका की संस्कृति दुनिया की सबसे ज्यादा धार्मिक कट्टरवादी संस्कृतियों में से एक है. अगर तालिबानियों को अलग रखा जाए तो इस्लामी विश्व में सऊदी अरब धर्म के मामले में सबसे ज्यादा कट्टरवादी है और अपनी उत्पत्ति के समय से ही अमेरिका का सहयोगी और साथी देश रहा है. वैसे भी तालिबान दरअसल इस्लाम के सऊदी संस्करण की ही एक शाखा है. इस्लामी उग्रवादी, जिन्हें अक्सर कट्टरवादी भी कहा जाता है, 1980 के दशक में अमेरिका के सबसे प्रिय पात्र थे, क्योंकि तब इनसे बेहतर हत्यारे अमेरिका को नहीं मिलते. उन बरसों में लैटिन अमेरिका के कैथोलिक चर्च अमेरिका के सबसे बड़े दुश्मन थे क्योंकि उन्होंने उत्पीड़ितों का साथ देने का जघन्य अपराध और दुस्साहस किया था और इसके लिए उन्हें काफी बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ी थी. पश्चिमी देश अपने दुश्मनों के चुनाव में काफी विश्वकुख्यात हैं. उनके चुनाव का आधार शक्ति की सेवा और गुलामी है, धर्म नहीं.
(क्रमशः)

2 comments:

Science Bloggers Association said...

पर भइया इसे कोई मानेगा क्‍यों।

seema gupta said...

" Truth is always bitter...no doubt.."

Regards