हिसाब लगा लीजिए कि निकारागुआ, क्यूबा, वियतनाम, इराक, अफगानिस्तान, बेरुत आदि में अमेरिका ने कितने लाख बच्चों और महिलाओं का कत्ल किया है. अकेले इराक में उसने पांच लाख बच्चों से समेत दस लाख लोगों को मारा था. हमें याद रखना चाहिए कि अमेरिका दुनिया का अकेला ऐसा देश है, जिसे विश्व न्यायालय ने अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के लिए धिक्कारा था और जिसने सुरक्षा परिषद द्वारा देशों से अंतरराष्ट्रीय कानूनों को मानने को प्रस्ताव को मानने से इनकार कर दिया था. इस तथ्य पर पर्दा डालने के लिए लगातार कोशिश चल रही है. अमेरिका ने अपने अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद को जारी रखा है. ओक्लाहोमा शहर पर बमबारी के बाद जब वहां के लोग भड़क गए थे, शहर बेरुत की तरह भुतहा नजर आने लगा था. इसी तरह रीगन प्रशासन ने 1985 में बेरुत पर बमबारी करवाई थी. एक मस्जिद के बाहर ट्रक से बमबारी की गई, ताकि ज्यादा लोग हताहत हों. उस घटना में 80 लोग मारे गए और ढाई सौ से ज्यादा लहूलुहान हुए थे. उनमें ज्यादातर औरतें और बच्चे थे. हमले का टारगेट एक उलेमा था, जिसे अमेरिका पसंद नहीं करता था. इस्रायल को चढ़ाकर उसने फिलस्तीनियों के अंधाधुंध कत्ल करवाएं हैं. तुर्की को समर्थन देकर उसने वहां के कुर्द बाशिंदों को कुचलवाया है. इसके लिए क्लिंटन सरकार ने हथियारों की एक बड़ी खेप तुर्की को मुहैया कराई थी. उसके बाद कुर्दों पर जुल्म और तेजी से ढाए गए. यह नब्बे के दशक के जातीय उन्मूलन और विध्वंस का सबसे घिनौना कारनामा था. लेकिन इसको कम ही लोग जान पाए क्योंकि यह अमेरिका का कारनामा था. जब इस मुद्दे को उठाने की कोशिश की गई तो इसे मामूली भूल कह कर खारिज कर दिया गया.
सूडान की दवा बनाने की फैक्ट्री, अलशिफा को बर्बाद करने की बर्बरता भी कम गंभीर नहीं. वह राज्य आतंकवाद की एक छोटी घटना मानी गई और जल्द ही उसे भी भुला दिया गया. नोम चोस्की कहते हैं कि फर्ज कीजिए, अगर लादेन ने अमेरिका की दवा आपूर्ति व्यवस्था के आधे हिस्से को बर्बाद कर दिया होता और इससे हुए नुकसान को पूरा करने के सारे रास्ते बंद कर दिए होते तो क्या प्रतिक्रिया हुई होती? सूडान के लिए वह हमला भीषण तबाही देने वाला रहा. बिन लादेन ने जब इस मसले को उठाया तो उसने लोगों के दुखों को स्वर दे दिया. ऐसे लोगों में वे भी शामिल हैं, जो उसे नापसंद करते हैं और उससे डरते हैं. 11 सितंबर की शर्मनाक और अक्षम्य घटना के बाद नोम चोम्स्की ने पत्रकारों को बताया था कि उस आतंकी हमले में मारे गए लोगों की संख्या की तुलना अलशिफा फैक्ट्री की बमबारी में मारे गए लोगों से की जा सकती है. सच्चाई तो ये है कि कमजोरों पर किए गए अत्याचार उतने ही स्वाभाविक हैं, जितना कि सांस लेना.
टैक्स पेई के रूप में अपराध यह है कि अमेरिकी कोई व्यापक अवरोध नहीं पैदा कर पाते और इस तरह आततायियों को पनाह और सुविधाएं मुहैया कराने में मदद करते हैं और सच्चाइयों को यद्दाश्त के किसी अंधेरे कोने में दफना देने की इजाजत दे देते हैं. सूडान ने जब संयुक्त राष्ट्र से बमबारी की वैधता की जांच करने की मांग की तो अमेरिका ने उसे रुकवा दिया.जब किसी हादसे में मारे गए लोगों की गिनती की जाती है तो सिर्फ उन्हें ही नहीं गिनना चाहिए, जो मौका-ए-वारदात में मारे गए बल्कि उन्हें भी उस गिनती में शामिल करना चाहिए, जो उस वारदात की वजह से बाद जान से हाथ धो बैठे. सूडान पर बमबारी में मारे गए सिर्फ उन लोगों की गिनती नहीं करनी चाहिए जो अमेरिका की क्रूज मिसाइलों का शिकार बने. मुख्य धारा का मीडिया इससे क्यों आंख चुराता है?
सूडान की दवा फैक्ट्री पर हमले के एक साल बाद प्राण रक्षक दवाओं के अभाव में मरने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. दसियों हजार लोग, जिनमें एक बड़ी संख्या बच्चों की है, मलेरिया, तपेदिक और ऐसी ही दूसरी बीमारियों से मर रहे हैं, जिनका इलाज संभव है. अल शिफा लोगों को सस्ती दरों पर दवाएं उपलब्ध करा देता था और पशुओं की दवाओं की भी पूरी आपूर्ति वही करता था. सूडान के कुल औषधि निर्माण का 90 प्रतिशत हिस्सा अल शिफा पर निर्भर था, दवा फैक्ट्री के विध्वंस से दवाओं की कमी की आपूर्ति के आयात पर अमेरिका ने प्रतिबंध लगा दिया. 20 अगस्त 1998 के अमेरिकी कदम ने सूडान के लोगों को दवाओं से पूरी तरह वंचित कर दिया. वहां करोड़ों लोगों का यह अप्रत्यक्ष कत्लेआम नहीं, तो और क्या हो सकता है?
सूडान में जर्मनी के राजदूत ने लिखा....यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि इस गरीब अफ्रीकी देश में अल शिफा के विध्वंस के कारण कितनी मौतें हुई होंगी. इस फैक्ट्री का विनाश यहां के देहाती लोगों के लिए बहुत बड़ी त्रासदी बना. अल शिफा सूडान के कुल दवा उत्पादन का 50 प्रतिशत दवा बनाता था और उसके विनाश से देश में मलेरिया की सबसे उपयुक्त दवा क्लोरोक्विन का अभाव हो गया और जब महीनों बाद इंग्लैंड की लेबर सरकार से यह मांग की गई कि जब तक सूडानी इस दवा का दोबारा उत्पादन शुरू नहीं कर देते, वह (इंग्लैंड) आपूर्ति करे, तो इस मांग को ठुकरा दिया गया था. यह कारखाना सूडान का तपेदिक की दवा बनाने वाला एक मात्र कारखाना था. इससे हर महीने सूडान के एक लाख से ज्यादा लोग ब्रिटिश पाउंड की लागत पर अपना इलाज कर पा रहे थे. उन लोगों में से अधिकांश के लिए आयातित महंगी दवाओं का सेवन संभव नहीं था. वे अपने शौहरों, बीवियों और बच्चों को , जो बमबारी के बाद बीमार पड़े, उतनी महंगी दवाएं नहीं खिला सके. उस कारखाने की एक और विशेषता यह थी कि वह जानवरों की ऐसी दवाएं बनाता था, जो जानवरों से इंसानों में चले जाने वाले उन परजीवियों को मार देती थी, जिनकी वजह से सूडान के अधिकतर नवजात जनमते ही दम तोड़ देते हैं. इस तरह खामोश मौतों का सिलसिला जारी है.........(यह सारी रिपोर्ट सम्मानित पत्र-पत्रिकाओं से इकट्ठी की गई है)
(क्रमशः जारी)
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1 comment:
America yahi karta hai. democracy ko hatakar tanashah baithana uska shagal hai
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