जब वे प्रेम करते थे
तब उनके आस-पास हिलकती थी नदी
दोनों इतने पारदर्शी थे
कि न तो वे दिखते थे न दिखती थी नदी
हवा में हिलते हुये धूप
हवा में हिलते हुये धूप
उनके कपडों पर तितली की तरह मंडराती थी
इतने हल्के थे उनके वस्त्र
जैसे मछली की नर्म पूँछ होती है
बस उतनी ही सलवटें,
उतनी ही धारियाँ,
उतनी ही नमी होती थी उन पर
जब वे प्रेम करते थे
जब वे प्रेम करते थे
तब मुस्कुरातीं थी मछलियाँ
मछलियों के मुस्कुराने पर
मछुए भी मुस्कुराते थे
मछुओं की मुस्कान काँटे की तरह
तिरछी हुआ करती थी
जिसे न वे जानते थे
न जानती थीं मछलियाँ
वे दोनों नदी के भीतर रहते थे
वे दोनों नदी के भीतर रहते थे
जैसे उन दोनों के भीतर रहती थी नदी
जब वे मरे…
जब वे मरे…
तब जमीन स्वंय ले कर गई उन्हें श्मशान
भूमि-पेड़ चल कर आए उनकी चिता बनने
अग्नि की लपटों की तरह
पेडों से निकली पत्तियाँ हरहरा कर
जिसमें चिडियों ने अपने घोसले का
एक तिनका
और अपने डैनों का एक पंख
उनकी अंतिम यात्रा के लिए रखा
हवा एक गिलहरी की साँसों मे
शोकगीत गाने लगी
जिसका कोरस मैने अपनी साँसों में भी सुना
पानी जब उनकी अस्थियाँ लेने आया
पानी जब उनकी अस्थियाँ लेने आया
तो मिट्टी का एक पात्र
लकडी की एक नाव
और सूत का वस्त्र
चुपचाप उसके साथ चला आया
यूँ हुआ उनका अंतिम-संस्कार
यूँ हुआ उनका अंतिम-संस्कार
जो करते थे प्रेम
कि उनके बाद मछलियों ने
अपने बच्चों के नाम रखे
उनके नाम पर
और उस दिन मछुआरों ने
नहीं डाला नदी में जाल.
2 comments:
जो करते थे प्रेम
कि उनके बाद मछलियों ने
अपने बच्चों के नाम रखे
उनके नाम पर
और उस दिन मछुआरों ने
नहीं डाला नदी में जाल.
"सुंदर अभिव्यक्ति..."
regards
वाह बेहतरीन चयन है फोटो का भी और कविता का भी..
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