देश में बुनियादी शिक्षा की मौजूदा तस्वीर, भले ही अतीत की अपेक्षा उत्साहजनक कही जाए लेकिन शिक्षा का अधिकार कानून बनाए जाने के बाद आनुपातिक संतुलन बनाने में अभी काफी लंबा समय लगने से इनकार नहीं किया जा सकता है। एक ताजा सर्वे रिपोर्ट पर गौर करें तो देश में स्कूल न जाने वाले बच्चों की संख्या में लगातार कमी आ रही है। राष्ट्रीय स्तर पर 7 से 10 वर्ष के 2.7 प्रतिशत बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं और 11 से 14 वर्ष के स्कूल न जाने वाले बच्चों का प्रतिशत 6.3 प्रतिशत है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्यों में भी तेजी से सुधार हो रहा है। छत्तीसगढ़ में तीसरी कक्षा में पहुंचे ऐसे छात्रों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है, जो कम से कम पहली कक्षा की किताब तो पढ़ ही लेते हैं। वर्ष 2007 में ऐसे बच्चों की संख्या राज्य में 31 प्रतिशत थी, जैसे महज एक वर्ष में बढ़कर 70 प्रतिशत हो गया। मध्य प्रदेश, केरल, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और हिमाचल प्रदेश ऐसे राज्य है, जहां के बच्चों की पढ़ाई-लिखाई की बुनियादी समझ सबसे बेहतर है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में बच्चों की गणित की बेसिक समझ अच्छी हुई है। दोनों ही राज्यों में कक्षा 1 के 91 प्रतिशत बच्चे 1 से 9 तक के नंबरो को आराम से पहचान लेते हैं। कक्षा पांच में पढ़ने वाले 61 प्रतिशत बच्चे घड़ी के समय को सही तरीके से देख लेते हैं। 45.6 प्रतिशत गांवो में ही प्राइवेट स्कूल है। 67.1 प्रतिशत गांवों में सरकारी मिडिल स्कूल है, तो 33.8 प्रतिशत गांवों में सरकारी सेकेंडरी स्कूल है। उत्तर प्रदेश और राजस्थान के अलावा 2007 के बाद से कई राज्यों में स्कूल न जाने वाले बच्चों की प्रतिशत संख्या में गिरावट आई है। शिक्षा में पीछे रहने वाले बिहार ने तेजी से रफ्तार पकड़नी शुरू की है। बिहार में 6 से 14 साल तक के स्कूल न जाने वाले बच्चों का प्रतिशत 2005 में जहां 13 था, जो अब महज 5.7 प्रतिशत रह गया है। छह से चौदह वर्ष के बच्चों में प्राइवेट स्कूल में जाने की संख्या में इजाफा हुआ है। 2005 में जहां 16.4 प्रतिशत बच्चे स्कूल जाते थे, तो 2008 में ये आंकड़ा बढ़कर 22.5 प्रतिशत हो गया। कर्नाटक, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में प्राइवेट स्कूलों में सबसे ज्यादा लोगों ने नामांकन कराया। केरल और गोवा के आधे से ज्यादा बच्चे प्राइवेट स्कूलों में जाते हैं। 2008 में 7 से 10 और 10 से 14 वर्ष के प्राइवेट स्कूल जाने वाले बच्चों में लड़कियों के मुकाबले 20 प्रतिशत लड़के ज्यादा हैं। कक्षा एक में पढ़ने वाले 24.75 प्रतिशत बच्चों की उम्र 6 वर्ष से कम है। पांच वर्ष की उम्र तक के 56.6 प्रतिशत बच्चे स्कूल जाते हैं। राजस्थान, जम्मू और कश्मीर, पंजब, हिमाचल और हरियाणा के 5 वर्ष तक की उम्र के 70 प्रतिशत बच्चे स्कूल जाते हैं। हिमाचल, हरियाणा और तमिलनाडु में पांच वर्ष की उम्र के बच्चों की स्कूल जाने की संख्या में पिछले तीन वर्षो में 16 से 20 प्रतिशत का इजाफा हुआ है।
अब सिक्के के दूसरे पहलू पर गौर फरमाए। अभी पिछले महीने ही, यानी जनवरी 2010 में केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में प्रधान न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन और बीएस चौहान की खंडपीठ को अवगत कराया था कि 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को शिक्षा का मौलिक अधिकार मुहैया कराने के लिए सरकार प्रतिबद्ध है और इसे 2010 के मध्य तक लागू किया जाएगा। इसे लागू करने के लिए नियम बनाए जा रहे हैं जो कि अप्रैल अथवा मई तक तैयार हो जाएंगे। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2002 में 6-14 वर्ष के बच्चों को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा मुहैया कराने के लिए संविधान में संशोधन किए गए थे, जिसे अब सात साल बीत चुके हैं। संसद ने निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा विधेयक को चार माह पूर्व पारित कर दिया था, लेकिन अभी तक न तो इस कानून को अधिसूचित किया गया है और न ही यह लागू हो पाया है। इस संबंध में प्रधान न्यायाधीश का कहना था कि अगर यह कानून बलपूर्वक लागू होता है तो बच्चे काम करने के बजाय स्कूल में होंगे। न्यायालय ने इस मुद्दे पर उठाए गए कदमों के बारे में सरकार से एक हलफनामा दाखिल करने को भी कहा। इस मामले की आगामी सुनवाई अब अगले महीने मार्च में होनी है। पिछले साल नवंबर में देश के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की जयंती पर एक समारोह में प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह ने कहा था कि देश में शिक्षा का अधिकार कानून लागू करने के लिए दस लाख शिक्षकों की ज़रूरत है। इसके लिए देश को अभी से गुणवत्तापरक शिक्षा के बारे में सोचना होगा। देश में आगे आने वाले समय में तकनीकी शिक्षा का भी बहुत बड़ा योगदान होने वाला है, इसलिए यह भी प्रयास किया जाना चाहिए कि इस तरह की शिक्षा प्रदान करने के लिए देश में आधारभूत ढांचा विकसित होता चले। यह सच है कि इस तरह के परिवर्तन एकदम से नहीं आ जाते हैं वरन इनके लिए पहले से सोच विचार कर काम किए जाने की आवश्यकता होती है। देश के आगे के समुचित विकास के लिए शिक्षा बहुत महत्वपूर्ण होती जा रही है। ऐसे में इस बात की आवश्यकता बढ़ जाती है कि देश में शिक्षा के लिए बहुत कुछ और भी किया जाए। आज के समय में देश साक्षर तो हो रहा है पर शिक्षा का स्तर सुधारने के लिए अभी बहुत समर्पण की ज़रूरत है। देश में शिक्षा के प्रसार में सबसे बड़ी बाधा योजनाओं पर झूठे आंकडे पेश करने से आती है। सर्व शिक्षा अभियान के तहत कितनी राशि खर्च की जा चुकी है, इसका कोई अनुमान नहीं है पर जिस तरह से साक्षरता दर बढ़नी चाहिए थी, वैसे नहीं बढ़ी। कहीं न कहीं सरकारी स्तर पर क्रियान्वयन में कमी है तो कहीं पर हमारे शिक्षक जो इस काम के लिए रखे गए हैं, जुगाड़ लगाकर केवल शहरों के आस-पास ही पढाना चाहते हैं, जिससे पूरा फायदा नहीं मिल पा रहा है।
दूसरी तरफ शिक्षा के अधिकार कानून को अमलीजामा पहनाने के लिए भारी-भरकम राशि का इंतजाम केंद्र सरकार के लिए बड़ी चुनौती साबित होने जा रहा है । केंद्र सरकार स्वीकार कर चुकी है कि केंद्र के पास कानून को लागू करने के लिए तकरीबन एक लाख 64 हजार करोड़ रूपए का इंतजाम बड़ी चुनौती है लेकिन केंद्र की चिंता को दरकिनार करते हुए राज्य सरकारों ने केंद्र से इस एक्ट को लागू करने के लिए ज्यादा पैसे की मांग की है । वित्तीय साझेदारी के सवाल पर केंद्र को पहली चिठ्ठी भाजपा शासित मध्यप्रदेश से मिली। मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मानवसंसाधन मंत्री कपिल सिब्बल को पत्र लिखकर कहा है कि शिक्षा के अधिकार कानून के लिए जरूरी कवायद शुरू करने के लिए जो पैसा खर्च होगा, उसका 90 प्रतिशत हिस्सा केंद्र वहन करे। वित्तीय आवश्यकता पूरी होने पर ही कानून पर प्रभावी अमल संभव हो पाएगा । उन्होंने कानून का समर्थन करते हुए कहा है कि इसके प्रावधानों से निश्चित रूप से शिक्षा के मामले में बुनियादी फर्क दिखने लगेगा, लेकिन पैसे की उपलब्धता को उन्होंने बड़ी समस्या बताया है । गौरतलब है कि मानवसंसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पत्र भेजकर शिक्षा के अधिकार कानून को लागू करने की दिशा में ठोस पहल शुरू करने का अनुरोध किया था। मानवसंसाधन मंत्रालय के सूत्रों का कहना है कि मंत्रालय ने वित्तीय जरूरतों के संबंध में वित्तमंत्रालय को लिखा है। वित्तमंत्रालय से अनुरोध किया गया है कि वह इस संबंध में जरूरी दिशा-निर्देश वित्त आयोग को दें। केंद्र की मंशा यह है कि सर्वशिक्षा अभियान सहित बुनियादी तालीम के लिए चल रही अलग-अलग योजनाओं को शिक्षा के अधिकार का हिस्सा बना दिया जाए। मानवसंसाधन मंत्रालय के आधिकारिक सूत्रों का कहना है कि कानून लागू करने के लिए नियम बनाए जा रहे हैं। जल्द ही वित्तीय साझेदारी का फार्मूला ढूंढ़ लिया जाएगा, लेकिन केंद्र की मंशा यह है कि जिस तरह से एसएसए सहित अन्य केंद्रीय योजनाओं में केंद्र और राज्य की हिस्सेदारी तय है, उसी तर्ज पर शिक्षा के अधिकार के लिए पैसा खर्च हो। मंशा ये भी है कि गरीब छात्रों की पढ़ाई के लिए मुक्त लोन की योजना पेश करने के बाद अब केंद्र सरकार उच्च शिक्षा के विस्तार के लिए एक वित्त निगम गठित करना चाहती है। यह निगम शिक्षण संस्थानों व सामाजिक संगठनों को सस्ते कर्ज मुहैया कराएगा, ताकि वे उच्च शिक्षा के ढांचे को मजबूत करने में मदद कर सकें। मानव संसाधन मंत्रालय की योजना के अनुसार प्रस्तावित नेशनल हायर एजुकेशन फाइनेंस कॉपोर्रेशन (एनएचएफसी) उच्च शिक्षा के क्षेत्र में निवेश बढ़ाएगा। उसकी पूंजीगत जरूरतों को पूरा करेगा। शिक्षा के क्षेत्र में यह परोपकारी संगठनों को बढ़ावा देगा। पिछड़े इलाकों में व्यावसायिक व उच्च शिक्षा संस्थान स्थापित करने के लिए उन्हें कम दरों में कर्ज उपलब्ध कराएगा। एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक, यह उच्च शिक्षा के क्षेत्र में नाबार्ड जैसे संस्थान की तरह काम करेगा। यह बांड जारी कर या बेचकर बाजार से धन जुटाएगा। विश्वविद्यालयों की स्थापना के लिए कर्ज मुहैया कराएगा।
जब हम बुनियादी शिक्षा अथवा नागरिकों के शिक्षा के अधिकार के वास्तविक हालातों पर गौर करते हैं तो पता चलता है कि हमारे देश की संसद ने आजादी के बासठ साल बाद गरीब बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का मूलभूत अधिकार देने वाला शिक्षा अधिकार बिल पारित किया है। छह से चौदह वर्ष की आयु के देश के सभी नौनिहालों, विशेषकर कमजोर वर्ग के बच्चों को कक्षा आठ तक अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा पाने का अधिकार देने वाले विधेयक को संसद द्वारा पारित कर दिए जाने को बेशक मील का पत्थर कहा जाएगा। यह बिल लंबे समय से संसद से हरी झंडी पाने की बाट जोह रहा था। अब तक देश में कमजोर वर्ग के करोड़ों बच्चों को गरीबी की वजह से शिक्षा से वंचित रह जाना पड़ता था, लेकिन मुफ्त शिक्षा अधिकार बिल के कानून बन जाने के बाद उनके अभिभावकों को उन्हें अपने निवास के निकटवर्ती स्कूल में भर्ती कराने में आसानी होगी। अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा कानून के अंतर्गत शिक्षा से जुड़े कुछ अन्य प्रावधानों को भी स्पष्ट किया गया है। इसमें प्राइवेट ट्यूशन पर प्रतिबंध, डोनेशन और शारीरिक दंड पर रोक जैसे मामले प्रमुख हैं। साथ ही, इसमें बच्चों को शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना से बचाने का भी प्रावधान किया गया है। कक्षा आठ तक किसी भी विद्यार्थी को कक्षा से निकालने या फेल करने को भी गैरकानूनी बना दिया गया है। गौरतलब है कि इस कानून को लागू करने की जो कवायद वर्ष 2005 में शुरू हुई थी, उसमें उपेक्षित बच्चों की श्रेणी में विकलांगों को भी शामिल किया गया था। अब बिल पारित होने के बाद इस श्रेणी को व्यापक तौर पर स्पष्ट किया गया है। इसमें अनुसूचित जाति, जनजाति, क्षेत्र, लिंग के आधार पर उपेक्षित बच्चों को परिभाषित किया गया है जबकि विकलांग बच्चों को उपेक्षित नहीं माना गया था। यह बताना भी जरूरी है कि विकलांग बच्चों को उपेक्षित बच्चों की श्रेणी में रखने की सिफारिश स्वयं प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने की है। शिक्षा अधिकार बिल के पास होने के बाद शिक्षा क्षेत्र से जुड़े लोग प्रसन्न तो हैं, लेकिन उनका कहना है कि इसे अमल में लाना बेहद जटिल कार्य होगा। केंद्र सरकार को राज्य सरकारों के साथ मिलकर योजनाओं के कार्यान्वयन के लिए जरूरी कई बदलाव लाने होंगे। वे राज्य जो आर्थिक तौर पर कमजोर हैं, उन्हें योजना को अमली जामा पहनाने के लिए वित्त आयोग से मदद लेनी जरूरी हो जाएगी। इस सबके बावजूद शिक्षा क्षेत्र से जुड़े लोगों का कहना है कि शिक्षा अधिकार बिल असमानता को बढ़ावा ही देगा। सरकारी स्कूलों, राज्य से सहायता प्राप्त स्कूल, विशेष दर्जा स्कूल और गैर सहायता प्राप्त प्राइवेट स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता अलग-अलग दर्जे की है और बिल में कहीं समान स्तर की शिक्षा देने की बात नहीं की गई है।
राज्यों में बुनियादी शिक्षा की जरूरतों यानी शिक्षा के अधिकार का मसला उठने पर यह भी जानना जरूरी हो जाता है कि सितंबर 2008 में संयुक्त राष्ट्र सहस्त्राब्दी अभियान ने हर बच्चे को शिक्षा दिलाने के उद्देश्य से शिक्षा अधिकार यात्राओं को को शिक्षा के क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ कार्यक्रम (बेस्ट प्रैक्टिस) के रूप में मान्यता दी थी। न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा के 63वें अधिवेशन के दौरान इस बाबत घोषणा करने का निर्णय लिया गया था। इस योजना का प्रारूप नेशनल कंफेड्रेशन ऑफ दलित ऑरगेनाइजेशन्स (नैकडोर) ने तैयार किया था। अधिवेशन में भाग लेने के लिए वहां पहुंचे नैकडोर अध्यक्ष अशोक भारती ने बताया था कि संयुक्त राष्ट्र की नॉन गवर्नमेंटल लाइजन सर्विस (एनजीएलएस) ने आठ विभिन्न क्षेत्रों में सहस्रताब्दी विकास लक्ष्य तय किए हैं, जिन्हें 2015 तक पूरा किया जाना है। संयुक्त राष्ट्र ने शिक्षा अधिकार यात्रा को शिक्षा के क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ पहल के रूप में स्वीकार किया है। शिक्षा अधिकार यात्रा के दौरान बच्चों और अभिवावकों को शिक्षा के लिए प्रेरित किया जाता है। इस यात्रा की बदौलत हरियाणा में कुछ महीनों के भीतर स्कूल छोड़ने का प्रतिशत करीब 75 प्रतिशत घट गया। शिक्षा अधिकार यात्रा को ब्रिटेन के अंतर्राष्ट्रीय विकास विभाग से भी सहयोग मिला है। भारतीय समाज में, बात मध्य प्रदेश की हो अथवा छत्तीसगढ़ की या अन्य किसी राज्य की, समाज में बच्चों के शिक्षा के अधिकार को सुनिश्चित करते हुए समतामूलक समाज निर्माण की दिशा में कदम बढ़ाना आज हमारी पहली जरूरतों में से एक है। आज कामन स्कूल सिस्टम लागू किया जाना उतना ही जरूरी हो गया है, जितना कि भूखों की भूख मिटाना। शिक्षा अधिकार कानून 2009 के बाल विरोधी और शिक्षा विरोधी प्रावधानों पर गंभीरता से ध्यान दिया जाना भी हमारी प्राथमिक जिम्मेदारियों में शुमार है। इसके लिए आदिवासी एवं दलित समुदायों की शिक्षा की हालत पर विशेष तौर से ध्यान देना होगा।
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