दो सवाल...
1. 11 सितंबर की घटना के क्या कारण रहे होंगे?
2. उस योजना के पीछे उसके मुख्य मकसद क्या थे?
22 सितंबर 2001 को माइकेल एलबर्ट के साथ एक इंटरव्यू में नोम चोम्स्की ने बताया था..... सऊदी अरब में अमेरिकी सेना की मौजूदगी, फिलीस्तीन पर ढाए जा रहे कहर को सहयोग और अमेरिकी नेतृत्व में इराक की तबाही जैसे विषय सिर्फ उसके नहीं, बल्कि पूरे प्रदेश के लोगों के आक्रोश का कारण रहे हैं. वह गुस्सा वहां के अमीर-गरीब, विभिन्न राजनीतिक और दूसरे तरह के सभी समूहों में मौजूद है. कहीं छिपा बैठा बिन लादेन इस तरह के परिष्कृत हमले को अंजाम दे सकता है लेकिन वाकई उसका नेटवर्क कमाल का है. वह नेटवर्क विकेंद्रित है, स्तर-मुक्त है और उनका आपसी संचार भी संभवतः काफी सीमित है. लादेन जानता है कि उसे क्या चाहिए और इस बात की जानकारी सिर्फ पश्चिमी लोगों को ही नहीं, अरब जनता को भी है, जिनके बीच वह टेप के माध्यम से पहुंचता है. अगर टेप विचार-विमर्श के मकसद से उसके ढांचे पर चर्चा कर रहे हैं तो उसका मुख्य निशाना सऊदी अरब और उसी तरह के दूसरे भ्रष्ट और गैरइस्लामी देश हैं. उसका नेटवर्क अपने को दुनिया भर के नास्तिकों और काफिरों से मुसलमानों की रक्षा करने वाला बताता है, चाहे वह चेचन्या हो या फिर बोस्निया, कश्मीर, पश्चिमी चीन, दक्षिण-पूर्व एशिया, उत्तर अफ्रीका या कोई और जगह. उन्होंने रूस को मुस्लिम अफगानिस्तान से खदेड़ने के लिए जेहाद किया और उनकी मंशा अमेरिकीयों को सऊदी अरब से बाहर निकालने की रही, क्योंकि मुसलमानों के सबसे पवित्र स्थान वहीं हैं. गुंडों और आततायियों की भ्रष्ट और जालिम सरकारों को उखाड़ फेकने का उसका आह्वान व्यापक स्तर पर प्रतिध्वनित होता है. वैसे ही, जैसे उन अत्याचारों के प्रति उसका गुस्सा, जिनके पीछे वह और दूसरे भी अमेरिका की मौजूदगी महसूस करते हैं. यह बिल्कुल सही है कि लादेन के अपराध हमेशा सबसे पिछड़े और दबे-कुचले लोगों के लिए नुकसानदेह साबित होते हैं. 11 सितंबर फिलिस्तीनियों के लिए सबसे नुकसानदेह रहा. लेकिन बाहर से जो परस्पर विरोधी दिखता है, अंदरूनी तौर पर बिल्कुल अलग ढंग से महसूस किया जाता है. लादेन के अपराध चाहे गरीब जनता के लिए जितने भी हानिकारक हों, उत्पीड़कों के खिलाफ हिम्मत से लड़ने वाले की उसकी छवि ने उसे नायक बना दिया है, क्योंकि वे उत्पीड़क भी काफी वास्तविक हैं और अगर अमेरिका उसे मारने में सफल हो जाता है तो वह शहीदे आजम बन जाएगा और उसके भाषण के कैसेटों के जरिए उसकी आवाज लगातार गूंजती रहेगी. उसके अपराध सीआईए को शायद ही आश्चर्यचकित कर पाएंगे. अमेरिका, फ्रांस, पाकिस्तान और कइयों ने इस्लामी कट्टरपंथियों के पलटवार को संगठित, सशस्त्र और प्रशिक्षित किया. वह पलटवार 1981 में हुई मिस्र के राष्ट्रपति सादात की हत्या के साथ शुरू हुआ. हालांकि सादात रूसियों के खिलाफ उस गिरोहबंदी को लेकर सबसे ज्यादा उत्साहित था. पिछले पचास सालों की तरह वह पलटवार बिल्कुल सीधा है, जिसमें नशीले पदार्थों की तस्करी और हिंसा भी शामिल है. मिसाल के तौर पर जॉन कुली बताते हैं कि सीआईए अधिकारियों ने मिस्र के कट्टरपंथी इस्लामी उलेमा शेख उमर अब्दुल रहमान को अमेरिका में घुसने में जानबूझकर सहयोग किया. उस पर हिंसा का आरोप था और मिस्र की सरकार उसे ढूंढ रही थी. वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की बमबारी में उसका हाथ पाया गया. इस बार उसके साथ सीआईए के उसी ग्रंथ के मुताबिक कार्वाइयां हुईं, जिसे रूस से लड़ने वाले अफगानियों को सौंपा गया था. योजना संयुक्त राष्ट्र भवन, लिंकन और हॉलैंड नहरों और दूसरे निशानों को उड़ाने की थी. शेख उमर को षड्यंत्र दोषी करार दिया गया और लंबी कैद की सजा हुई.
अगर हमें सच्चे न्याय से जरा भी लेना-देना था तो 11 सितंबर की घटना के बाद भी वैसी पुनरावृत्ति रोकने और नागरिकों की हिफाजत के लिए सच्चे दिल से सोचने-करने का एक ही रास्ता है, कानून का, अदालत का, न कि सीधे किसी मुल्क के बच्चों और औरतों पर बम बरसाने का. थोड़े फेरबदल के साथ हमे विश्व अदालत के मूल्यों का ही पालन करना चाहिए. अब तो साफ है कि जो लोग अमेरिका की मनचाही हिंसक गतिविधियों में साथ नहीं देंगे, उसके निशाने पर होंगे. उनके खिलाफ आगे भी खुली जंग होनी है. न्यूयॉर्क टॉइम्स ने 14 सितंबर 2001 को लिखा था कि दुनिया के देशों को कड़ा फैसला लेना होगा कि वे क्रूसेड (धर्मयुद्ध) में शामिल हों या मृत्यु और तबाही की निश्चित संभावनाओं का सामना करें. सिमोन जेंकिंस टाइम्स ने लिखा था कि बुश का 20 सिंतबर 2001 का भाषण ज्यादातर दुनिया के खिलाफ जंग का ऐलान था. आतंकवाद विरोधी सरकारी हमले से लादेन के मकसदों को फायदा पहुंचेगा, उनके नेताओं को मजबूती मिलेगी, सहनशीलता घटेगी और धर्मोन्माद को बढ़ावा मिलेगा. इतिहास अरब और पश्चिम के बीच खूंख्वार संघर्षों के लिए कोई एक उत्प्रेरक चाहता है तो वह उसकी जगह ले सकता है. यदि किसी हमले लादेन मारा भी जाता है तो ज्यादा से ज्यादा क्या होगा, वह मारा जाएगा, फिर भी मासूमों के कत्लेआम से इलाके में पहले से व्याप्त गुस्सा, नफरत और क्षोभ और भी बढ़ेगा और उसके वहशी मंसूबों को मदद मिलेगी. अगर आगे भी संधि-कर्तव्यों, कानून और समझदारी की अनदेखी की गई तो हालात बहुत ही भयानक होंगे. यूरोप सदियों की खूंरेजियों से तबाह होता रहा और तब दुनिया के देशों ने औपचारिक ही सही, एक उसूल बनाया कि शक्ति का इस्तेमाल केवल हमले के समय अपनी सुरक्षा के लिए ही होगा, और वह भी तब तक, जब तक सुरक्षा परिषद हरकत में न आ जाए. खासकर पलटवार पर पाबंदी लगाई गई. चूंकि संयुक्त राष्ट्र के चॉर्टर के अनुच्छेद 51 के अनुसार अमेरिका पर कोई सशस्त्र हमला नहीं हुआ, इसलिए इस तरह के विचार निर्थक हैं, लेकिन यह तभी होगा, जब हम अंतरराष्ट्रीय कानूनों के मूलभूत सिद्धांतों को अपने ऊपर भी उसी तरह लागू समझें, जिस तरह अपने दुश्मनों के मामले में समझते हैं. गई सदियों में यूरोप को क्या मिला...इंसानियत का खून, कत्लोगारत, तबाही, बर्बादी. इसीलिए छह दशक पहले यूरोपियों ने तय किया कि सदियों से चले आ रहे पारस्परिक नरसंहारों के सिलसिले को खत्म किया जाना चाहिए.
1965 में अमेरिका समर्थित एक सेना ने इंडोनेशिया पर कब्जा कर लिया, लाखों लोगों का कत्लेआम किया, जिनमें ज्यादातर खेतिहर मजदूर थे. सीआईए ने इसकी तुलना हिटलर, स्तालिन और माओ के अपराधों से की थी. उस नरसंहार ने पश्चिम के अनियंत्रित हर्षोन्माद को उजागर कर दिया था. जब निकारागुआ ने अमेरिकी हमलों के सामने घुटने टेक दिए तो मुख्य धारा के अखबारों ने इस्तेमाल किए गए हथकंडों की कामयाबी का स्तुतिगान किया था. अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का जुनून 1980 के दशक में चरम पर था, जब अमेरिका और उसके सहयोगी उसी कैंसर को पूरी दुनिया में फैला रहे थे, जिसे समूल नष्ट करने की कभी रीगन प्रशासन मांग करता रहा था. अगर हम चाहें तो आरामदेह खुशफहमी की दुनिया में रह सकते हैं, या फिर हम इतिहास से सबक लेना अब भी सीख जाएं. जरूरत इसी की है. हां यह अंदेशा स्वाभाविक हो कि हो सकता है, लादेन मार दिया गया हो, समझ ठीक दिशा में काम कर रही हो और शक्तिकेंद्र किसी बेहतर रणनीति के तहत उस गुप्त घटना को छिपा रहे हों.
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1 comment:
अच्छा लिखा है आपने। आपका लेख कई बातें सोचने पर विवश करता है।
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