चिट्ठियां लिखे
आधी उम्र जा चुकी,
अब कोई कविता लिखने का
मन नहीं करता,
दोस्ती के मुहावरे जाने कब के
झूठे पड़ चुके,
बातें बचपन के गांव की करूं
-तो......
किताबों की करूं
-तो........
मां की लोरियों और पिता की स्नेहिल झिड़कियों की करूं
-तो.......
उस समय से इस समय तक
जब कुछ भी
साबुत नहीं रहा
-तो....
करूं क्या
सोचने से पहले अथवा
विचार मर जाने के बाद
उसके साथ भी वही हुआ, जैसाकि अक्सर होता है
बहुतों के साथ.
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1 comment:
बहुत सुन्दर एहसास के साथ एक बेहतरीन रचना है।बहुत अच्छी लगी।आभार।
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