Tuesday, September 23, 2008

जब नेहरू के सामने दिनकर के चेहरे का रंग उड़ गया!!

एक बार दिल्ली के लाल किले पर अखिल भारतीय कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया था। मंच की अध्यक्षता कर रहे थे, उन दिनो के राष्ट्रीय कवि रामधारी सिंह दिनकर। मंच पर दिनकर हों, पं.जवाहर लाल नेहरू का साहित्यानुराग कैसे सुसुप्त रहे, हो ही नही सकता था।
सो, हुआ यह कि पहुंच गए नेहरू जी भी। पूरा हाल खचाखच भरा था। मंच पर देश भर लोकप्रिय मंचीय विराजमान थे। कवि सम्मेलन शुरू हुआ। किसी की जुबान से महुआ के नीचे फूल झरे (बच्चन) तो कोई हल्दीघाटी के मैदान में राणाप्रताप की तलवार भांजने लगा। कविता के नाम पर यह आल्हा-ऊदलबाजी चल रही थी कि नेहरू की मांग पर दिनकर जी नमूदार हुए माइक के सामने अपने सरकारी महिमामय व्यक्तित्व के साथ। ...और शुरू हुआ उनका काव्य-पाठ।
इसी बीच श्रोतादीर्घा से किसी ने दिनकर के नाम एक चिट लिख भेजी। कविता पढ़ते-पढ़ते में ही दिनकर ने उस चिट के हर्फों पर भी तिरछी नजर डाल ली। ....और पढ़ते ही उनके चेहरे से काव्य-रंग फाख्ता हो चले। जल्दी-जल्दी उन्होंने कविता की शेष लाइना निपटायीं और धम्म से आ गिरे अपने अध्यक्षीय गाव-तकिये पर शून्य में ताकते हुए।
न लोगों को कुछ समझ में आया, न नेहरू जी को आखिर आज दिनकर के काव्यपाठ में वो रंग क्यों नहीं दिखा और झटपट क्यों माइक छोड़ आए। उधर, नीचे से कुछ श्रोताओं ने दिनकर को और सुनने की इच्छा जतायी। यह बात और थी, कि उनकी इच्छा पूरी होने से रही। दिनकर पर घड़ो पानी फूट रहे थे। तो बात क्या थी?
बात दरअसल ये थी कि जो चिट दिनकर जी को थमायी गयी थी, उस पर श्रोता ने उनकी कविता सुनकर लिखा था......आपकी कविता से बोर हो रिया हूं, मन करता है इस चिट पर आपका नाम लिखकर दस जूते मारूं..... लाहौलबिलाकूवत!

5 comments:

रंजन (Ranjan) said...

क्या ये सही बात है?

अगर हां तो शर्मनाक है..

Udan Tashtari said...

चाहे दिनकर जी हों या कोई और कवि-कलाकार का ऐसा असम्मान उसकी प्रस्तुति के दौरान-हमेशा शर्मनाक ही कहलायेगा!!

लोकेश Lokesh said...

हो भी सकता है।

Kavita Vachaknavee said...

ऐसी बातें निस्सन्देह गप्प की श्रेणी में आती हैं।
या आप अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए सन्दर्भ,पुस्तकनाम,लेखक, अता-पता,प्रकाशक या जो भी आपका आधर रहा है उसका पूरा ब्यौरा दें,प्रतिलिपि उपलब्ध कराएँ। अन्यथा ऐसे बेसिर पैर के फूहड़ हवाई बेतुकेपन के लिए सार्वजनिक क्षमा माँगें।
ऐसा न होने की स्थिति में मैं आपका तीव्र विरोध ही नहीं निन्दा करती हूँ।

Anonymous said...

मुझे यह नहीं समझ अाता कि वह श्रोता उठ कर चला क्यूँ नहीं गया....मुझे भी दिनकर की कई कवितायें अच्छी नहीं लगतीं...इससे दिनकर छोटे नहीं हो जाते....ना ही मैं बड़ा....