Friday, June 6, 2008

यारो, ऐसे-वैसे लोग!

झटपट रंग बदल लेते हैं
कैसे मतलब वाले लोग।
मुंह के जितने भोले-भाले
मन के उतने काले लोग।

जब तक चुटकी में रहते हैं
जूठन को प्रसाद कहते हैं
चढ़ी कड़ाही, फिर तो पांचों
उंगली घी में डाले लोग।

यारों, ऐसे-वैसे लोग,
जाने कैसे-कैसे लोग,
हाथों की रेखा हो जाते हैं
पांवों के छाले लोग।

कसौटियों पर उल्टे-सीधे
उनके भी क्या खूब कसीदे
खुद ही खींच-खांच लेते हैं
अपने-अपने पाले लोग।

गूंगों की बस्ती में ठहरे,
थोड़े अंधे, थोड़े बहरे,
खेल रहे कुर्सी-कुर्सी
हाथों में लिये मशालें लोग।


6 comments:

रवि रतलामी said...

कल तक थे गलबहियाँ डाले
आज मुँह फेरे अपने वाले लोग

वाह, क्या बात है.

रंजू भाटिया said...

कसौटियों पर उल्टे-सीधे
उनके भी क्या खूब कसीदे
खुद ही खींच-खांच लेते हैं
अपने-अपने पाले लोग।

खूब सही व्यंग कसा है आपने इस रचना में ..

बालकिशन said...

आपकी कलम नग्न सच्चाई को आइना दिखलाती है.
बहुत साहस का काम है.
बधाई.

Udan Tashtari said...

गूंगों की बस्ती में ठहरे,
थोड़े अंधे, थोड़े बहरे,
खेल रहे कुर्सी-कुर्सी
हाथों में लिये मशालें लोग।

-बहुत उम्दा.

36solutions said...

करारी चोट पहुंचाती कवितायें हैं मुहफट जी, आपके नाम के अनुकूल । साधारण शव्दों को ऐसा भी बुना जा सकता है कि तलवार बन जाये, आपका कार्य सराहनीय है । धन्यवाद

Ila's world, in and out said...

सामयिक मुद्दों को बहुत ही रोचक ढंग से पेश किया आपने अपनी कविता में.

गूंगों की बस्ती में ठहरे,
थोड़े अंधे, थोड़े बहरे,
खेल रहे कुर्सी-कुर्सी
हाथों में लिये मशालें लोग।

बहुत बहुत बढिया.एक विनती है,कृपया टिप्पणी देने वालों की सुविधा के लिये वर्ड वेरिफ़िकेशन हटा दें.धन्यवाद.