Tuesday, June 3, 2008

मालामाल हरामी नाचैं....

आगे-आगे कौवा नाचैं।
पीछे से गुह-खौवा नाचैं।
हौवी नाचै, हौवा नाचैं।
पी के अद्धा-पौवा नाचैं।

वीबी नाचै, सैंया नाचै।
संग में सोन चिरैया नाचै।
भौजी नाचै, भैया नाचै।
छमछम, ताता-थैया नाचै।

सीधे, कबौं बकइयां नाचै।
कचाकच्च गलबइयां नाचै।
चड्ढी में मुंबइया नाचै।
चोली बीच रुपइया नाचै।

लट्टू ऊपर लट्टू नाचैं।
राजनीति के टट्टू नाचैं।
चारो ओर निखट्टू नाचैं।
कुर्सी पर मुंह-चट्टू नाचैं।

महंगी उचक अटारी नाचै।
एमए पास बेकारी नाचै।
घर-घर में लाचारी नाचै।
दिल्ली तक दुश्वारी नाचै।

गा-गाकर कव्वाली नाचैं।
बजा-बजाकर ताली नाचैं।
गुंडा और मवाली नाचैं।
औ उनकी घरवाली नाचैं।

शहर-शहर उजियारी नाचैं।
गांव-गांव अंधियारी नाचै।
कूकर खद्दरधारी नाचैं।
अफसर चोर-चकारी नाचैं।

गाल बजावत मल्लू नाचै।
सिंहासन पर कल्लू नाचै।
ठोकैं ताल निठल्लू नाचै।
मंत्री बन के लल्लू नाचै।

छूरा नाचै, चाकू नाचै।
पट्टी पढ़े-पढ़ाकू नाचैं।
चुटकी-मार तमाकू नाचै।
साधु वेश में डाकू नाचै।

रात-रात भर टामी नाचै।
मामा के संग मामी नाचै।
उजड़े हुए असामी नाचैं।
मालामाल हरामी नाचैं।

ताकधिनाधिन...ताकधिनाधिन...ताकधिनाधिन...त्ता-आआआ।

5 comments:

मैथिली गुप्त said...

बहुत अच्छा लिखा है
लेकिन आप क्या आगरे के रहने वाले हैं?

मुंहफट said...

नहीं, चमोली का रहने वाला हूं। कभी अस्सी के दशक में दो-चार साल आगरे रहा था। उससे पहले पढ़ाई-लिखाई बीएचयू में हुई थी।

sanjay patel said...

वाह क्या बात है.मैथिलीजी ने ठीक कहा आगरे की ध्वनि है आपकी कविता में .पहले तो लगा नज़ीर अकबराबादी के नाटक आगरा बाज़ार की रचना तो नहीं.बहुत सुंदर.

रवि रतलामी said...

जबरदस्त! बड़े दिनों बाद कोई हिन्दी चिट्ठा पढ़कर नाचने का मन हुआ. :)

मैथिली गुप्त said...

नजीर साहब के बाद आगरे में उनकी परम्परा पर ख्यालगोई, चंगबाजी, रसिया, फटकेबाजी बहुत फैली. आपकी कविता में फटकेबाजी का स्टायल है जो आगरा और हाथरस के लोगों में ही मिलता है. इसी कारण मुझे एसा लगा.