न राजा का, न रानी का,
चक्कर चौधरानी का।
मची थी धकधक्की
लगी थी टकटक्की
चक्का वाली चक्की
रह गई थी भौचक्की
तो गांधी के फोटू वाले नोट बांट-बाटकर
सलामत किया था राजपाट,
न दीदा का, न पानी का,
चक्कर चौधरानी का।
कहीं पिल्ला, कहीं पिल्ली,
कहीं पटना, कहीं दिल्ली,
चहुंओर मजा मारि रहे
खादी शेखचिल्ली तो बड़े-बड़े बिल्लों पर
भारी एक बिल्ली,
न नेहरू का, न गान्हीं का
चक्कर चौधरानी का।
अमरीकी ...ड़वे और हिटलर के पट्ठे।
चाट गए लोकतंत्र चट्टू तिलचट्टे।
दाएं तिरंगा और बाएं हाथ कट्टे।
आवैं चुनाव में तो मारि-मारि फट्ठे,
कुर्सी-बहादुरों के करों दांत खट्टे।
कूकरों की गर्दन में बांधकर पट्टे
घुमाओ पूरे गांव, पिलाओ सड़े मट्ठे।
क्योंकि
सोना का, न चानी का
चक्कर चौधरानी का।
Monday, July 28, 2008
Friday, July 25, 2008
लौट के आए चिरकुट ji

दिल्ली से जब दूध-बताशा खाकर आए चिरकुट जी।
कूद-कूद कर लोकतंत्र का गाना गाए चिरकुट जी।
ढोल बजाते संग-संघाती, अमरीका के कूकर-नाती,
टॉप दलालों की टोली की कथा सुनाएं चिरकुट जी।
मनमोहन की नाव खेंचकर, नोट-कमाऊ वोट बेचकर,
जो भी दे दे टिकट, उसी की टहल बजाएं चिरकुट जी।
सोनिया गांधी, राहुल गांधी और मुलायम सिंह, अमर
की गद्दारी के सुर-में-सुर खूब मिलाएं चिरकुट जी।
गाली गाएं कैसी-कैसी, जनता की ऐसी-की-तैसी,
फिर गठबंधन की गठरी में गांठ लगाएं चिरकुट जी।
डील हुई तो डील-डौल में, हुए चौगुना नाप-तौल मे,
गुंडों की चौपाल लगाकर फिर भरमाएं चिरकुट जी।
सांपनाथ से नागनाथ तक, सोमनाथ से डोमनाथ तक
मिले-जुले औ जमे-जमाए, लौट के आए चिरकुट जी।
बोले- खोद दिया है खंदक, देश रख दिया है बंधक,
वोटर तो गुलाम के वंशज, फिर क्यों भाए चिरकुट जी।
आने दो चुनाव की बेला, फिर देखो चौगानी खेला,
इरपट-तिरपट, छक्का-पंजा पर इतराएं चिरकुट जी।
Thursday, July 24, 2008
लीलाधर ललाम को लाल सलाम
भांग छान के वाजपेयी सुट्ट।
टांग तान के दलबदलू फुट्ट।
हे राम!
...मंदिर कैसे बनेगा?
लोकसभाध्यक्ष लीलाधर ललाम।
कुर्सी का मालमत्ता चापैं सुबह-शाम।
छोड़ गरीब-सरीब की बात,
और फालतू का लाल सलाम।
यूपी में इंका के साथ मुलायम गुल्ल।
माया के साथ अजित का हाउस फुल्ल।
अगले चुनाव में किसकी बनेगी गत्त।
खामख्वाह होनी है भाजपा की
राम-नाम सत्त!
टांग तान के दलबदलू फुट्ट।
हे राम!
...मंदिर कैसे बनेगा?
लोकसभाध्यक्ष लीलाधर ललाम।
कुर्सी का मालमत्ता चापैं सुबह-शाम।
छोड़ गरीब-सरीब की बात,
और फालतू का लाल सलाम।
यूपी में इंका के साथ मुलायम गुल्ल।
माया के साथ अजित का हाउस फुल्ल।
अगले चुनाव में किसकी बनेगी गत्त।
खामख्वाह होनी है भाजपा की
राम-नाम सत्त!
Sunday, July 20, 2008
पटो-पटाओ, लूटो-खाओ मौज करो
लोकतंत्र है, लोकतंत्र है
ताताथैया थूः
संसदीय चोट्टा स्वतंत्र है
ताताथैया थूः
इसकी टोपी उसके सिर
उसकी टोपी इसके सिर
पटो-पटाओ, लूटो-खाओ मौज करो,
इसकी कुर्सी उसके घर
उसकी कुर्सी इसके घर
दाता एक राम, भिखारी सारी दुनिया
जेब भरो भइ जेब भरो,
पंचतंत्र है, पंचतंत्र है
ताताथैया थूः संसदीय चोट्टा स्वतंत्र है ...ताताथैया थूः
अमरीका की गोटी चन्न
वाह-वाह जी मनमोहन्न
डील-डौल पर डोला मन्न
राजनीति के भड़वे टन्न
देख दलाली दुनिया सन्न
जाल चुनावी
चाल चुनावी
हर उल्लू की
डाल चुनावी
दिल्ली का हर
ताल चुनावी
होकर मालामाल चुनावी
तीयापांचा महामंत्र है...
लोकतंत्र है, लोकतंत्र है...ताताथैया थूः
संसदीय चोट्टा स्वतंत्र है....ताताथैया थूः
ताताथैया थूः
संसदीय चोट्टा स्वतंत्र है
ताताथैया थूः
इसकी टोपी उसके सिर
उसकी टोपी इसके सिर
पटो-पटाओ, लूटो-खाओ मौज करो,
इसकी कुर्सी उसके घर
उसकी कुर्सी इसके घर
दाता एक राम, भिखारी सारी दुनिया
जेब भरो भइ जेब भरो,
पंचतंत्र है, पंचतंत्र है
ताताथैया थूः संसदीय चोट्टा स्वतंत्र है ...ताताथैया थूः
अमरीका की गोटी चन्न
वाह-वाह जी मनमोहन्न
डील-डौल पर डोला मन्न
राजनीति के भड़वे टन्न
देख दलाली दुनिया सन्न
जाल चुनावी
चाल चुनावी
हर उल्लू की
डाल चुनावी
दिल्ली का हर
ताल चुनावी
होकर मालामाल चुनावी
तीयापांचा महामंत्र है...
लोकतंत्र है, लोकतंत्र है...ताताथैया थूः
संसदीय चोट्टा स्वतंत्र है....ताताथैया थूः
Tuesday, July 1, 2008
व्यंग्यम् शरणम् गच्छामि....
फुंसी
महंगाई मकोड़ों के लिए है, अपुन आओ मगौड़े तलें। दिल्ली में जोर की बारिश है। नौकरानी को धक्का मारकर किचन में घुसीं मैडम पुरनिया बुड़बुड़ा रही हैं।
मिस्टर जीपी राव पुरनिया जर्मन की मल्टी नेशनल कंपनी में सीई हैं, लेकिन देश-दुनिया के ताजा हालात पर बांकी नजर रखते हैं। बात-बात पर उन्हें मैडम पुरनिया से कोफ्त होती है कि घरेलू कचहरी में उन्हें जिरह करने का आज तक सऊर नहीं आया। हर महीने लाखों की सेलरी बहू-बेटियों में फूंक-ताप कर सुट्ट हो लेती हैं। बस। महंगाई की इतनी तेज लपट उठ रही है, और इन्हें रत्ती भर आंच का इल्म नहीं। छोड़ो भी। कौन किन्नी करे फालतू की फुंसी पर।
मैडम पुरनिया उनके लिए फालतू की फुंसी हैं। दफ्तर तक दिमाग में टभकती रहती हैं। तभी तो मद्रासी-हिंदी में जर्मन स्टेनो अक्सर कहती है- सर आपकी हंसी में मेरे डिल को कुछ-कुछ होती है। महंगाई का फोड़ा इत्ता-कित्ता हुआ जा रहा है। और इसे कुछ-कुछ होती है।
इसीलिए जीपी राव घनघोर व्यथित हैं। जितने महंगाई से, उससे कई गुना ज्यादा अपने-आप और अपने आसपास से, घर-परिवार से। सोचते रहते हैं कि आगे-पीछे कैसे-कैसे हातिमताई। नर-बानर! ऐसे में कई बार तो इस घर-घिस्सू नौकरी से ही तौबा कर लेने को जी चाहता है। इतनी महंगाई न होती तो कब का लात मार चुका होता ससुरी को। नहीं सुहाती ऐसी टुकड़खोरी। जिंदगी भी कहां-से-कहां ठेल ले आयी। बनना चाहता था अर्थशास्त्री, तकदीर ने हिटलर के नर्क में भेड़ दिया। जाने अभी कब तक दहकना है इस दहाने पर। यहां एकाउटेंट के तीया-पांचा से भी उन्हें अनायास चिढ़ होती है। इंडियंस पर सेलरी की शेखी बघारता है और जर्मनों के दड़बे में रिरियाता रहता है दोमुंहा कहीं का! दफ्तर से छूटते ही भागता है कनाट प्लेस। वो क्यों? मिंटो ब्रिज पर रेलवे के मेहतरों से तिग्गा भिड़ाने। हुंडी चलाता है। सूदखोरी का खून मुंह लग गया है। उफ्, राजधानी में भी कैसे-कैसे सन्निपात पल रहे हैं। कचक्का महंगाई में विदेशी पगार का इससे उम्दा स्वदेशीकरण और हो भी क्या सकता है!
मैडम पुरनिया का मानना है कि कहीं महंगाई-सहंगाई नहीं। सब बजट के बंदों की माया है। अपने राव साहब से कंपनी वाले कचूमर निकाल लेते हैं काम कराते-कराते। छियालीस के हो भी लिये। माथा फिर गया है। आज कल और कुछ नहीं तो महंगाई-मंतरा पढ़ रहे हैं। न चैन से रहेंगे, न रहने देंगे। भला बताओ कि जिस शख्स को किटी पार्टी से इतनी खुन्नस है, उसके दिमाग के चंगा होने की क्या गारंटी! अब महंगाई से मरें निकम्मे लोग, अपुन को क्या करना। बाकी बात रही तो, जिम्मा सरकार का। वो जाने, उसका काम। मनमोहन किसलिए कुस्री तोड़ रहे हैं? चिदंबरम् किस दिन के लिए हैं? डीडी-1 पर चिंतन चल ही रहा है बड़े-बड़ों का। आलोक मेहता से प्रभु चावला तक जुटे हुए गुत्थी फेटने में। बाकी चैनल भी और दुनिया भर के अखबार जंतर-मंतर से न्यूयार्क पोस्ट तक कितनी जोर-जोर की पीपी बजा रहे हैं। मथानी मार रहे हैं।
...और बुश बुरा क्या कहते हैं कि इंडियन बेहिसाब भकोसते हैं। ये लो, उस बयान पर भी बहत्तर तरह की बकवास। कित्ता तूल। ये भी कोई बात हुई! तेली का तेल जले, मशालची का कलेजा फटे...क्यों? घरों में इतने बड़े-बड़े किचन, बाहर दुनिया भर के होटल-रेस्टोरेंट आखिर किस वास्ते....ऐं!! ऐसे-ऐसे लजीज आइटम कि अपुन नाचीज की भी लार चू पड़ती है। और एक अपने जनाब कि इन्हें भरम की भूतनी से फुर्सत नहीं। अरे, चार दिन की जिंदगी। काहे की हैहै-खैखै। चुप मारो अलाय-बलाय से। रामदेव का योगा करो, बापू के प्रवचन सुनो। मन-चित्त चंगा रखो। चैन से जीयो और हमे भी जीने दो। फितूरपंथी के लिए तो सारी दुनिया पड़ी है।
बहू-बेटों के बीच हंसी-ठट्ठा में प्रायः मैडम पुरनिया गजब का दार्शनिक बाना ओढ़ लेती हैं। जो सुन ले, तो जान ले कि वो कोरी कुढ़मगज गृहिणी नहीं। नये टॉपिक पर टपकते हुए कहती हैं....बड़े-बड़े अर्थशास्त्री, मंत्री, वित्तमंत्री, प्रधानमंत्री तक बेचारे महंगाई के पीछे हाथ धोकर पड़े हैं। हम सब न तीन में, न तेरह में। खामख्वाह की आह-ऊह। काहे का बेंजा अपना भेजा खराब करें! जिनकी ड्यूटी बनती है, वो मगजमारी करें न। लेना एक, न देना दो....क्या कि महंगाई बढ़ रही है...हुंह्। और कोई काम नहीं बचा क्या जी! इत्ता ही जाप-जादू का शौक चर्राया है तो जाओ न रेहड़ी वालों के मुहल्ले में। रहो वहीं। ठेल-ढकेल लगाओ। बेंचो अमरूद-संतरा। दो ही दिन में पता चल जायेगा आटा-दाल का भाव। काहे जर्मनों की कंपनी में झख मार रहे चौदह-चौदह घंटे। पेट फुला के तो कोई भी चंठ-चिंतन कर लेगा। अपुन का तो साफ-साफ मानना है कि जिसका काम, उसी को भावै, हलुका ले के बाभन धावै....झूठमूठ का....हीही-हीही। और क्या।
बारिश हुई है। कितना मस्त मौसम है आज।
चलो गोभी के मगौड़े तलते हैं।
महंगाई की मौत मरें मकोड़े।
अपुन को क्या!!
महंगाई मकोड़ों के लिए है, अपुन आओ मगौड़े तलें। दिल्ली में जोर की बारिश है। नौकरानी को धक्का मारकर किचन में घुसीं मैडम पुरनिया बुड़बुड़ा रही हैं।
मिस्टर जीपी राव पुरनिया जर्मन की मल्टी नेशनल कंपनी में सीई हैं, लेकिन देश-दुनिया के ताजा हालात पर बांकी नजर रखते हैं। बात-बात पर उन्हें मैडम पुरनिया से कोफ्त होती है कि घरेलू कचहरी में उन्हें जिरह करने का आज तक सऊर नहीं आया। हर महीने लाखों की सेलरी बहू-बेटियों में फूंक-ताप कर सुट्ट हो लेती हैं। बस। महंगाई की इतनी तेज लपट उठ रही है, और इन्हें रत्ती भर आंच का इल्म नहीं। छोड़ो भी। कौन किन्नी करे फालतू की फुंसी पर।
मैडम पुरनिया उनके लिए फालतू की फुंसी हैं। दफ्तर तक दिमाग में टभकती रहती हैं। तभी तो मद्रासी-हिंदी में जर्मन स्टेनो अक्सर कहती है- सर आपकी हंसी में मेरे डिल को कुछ-कुछ होती है। महंगाई का फोड़ा इत्ता-कित्ता हुआ जा रहा है। और इसे कुछ-कुछ होती है।
इसीलिए जीपी राव घनघोर व्यथित हैं। जितने महंगाई से, उससे कई गुना ज्यादा अपने-आप और अपने आसपास से, घर-परिवार से। सोचते रहते हैं कि आगे-पीछे कैसे-कैसे हातिमताई। नर-बानर! ऐसे में कई बार तो इस घर-घिस्सू नौकरी से ही तौबा कर लेने को जी चाहता है। इतनी महंगाई न होती तो कब का लात मार चुका होता ससुरी को। नहीं सुहाती ऐसी टुकड़खोरी। जिंदगी भी कहां-से-कहां ठेल ले आयी। बनना चाहता था अर्थशास्त्री, तकदीर ने हिटलर के नर्क में भेड़ दिया। जाने अभी कब तक दहकना है इस दहाने पर। यहां एकाउटेंट के तीया-पांचा से भी उन्हें अनायास चिढ़ होती है। इंडियंस पर सेलरी की शेखी बघारता है और जर्मनों के दड़बे में रिरियाता रहता है दोमुंहा कहीं का! दफ्तर से छूटते ही भागता है कनाट प्लेस। वो क्यों? मिंटो ब्रिज पर रेलवे के मेहतरों से तिग्गा भिड़ाने। हुंडी चलाता है। सूदखोरी का खून मुंह लग गया है। उफ्, राजधानी में भी कैसे-कैसे सन्निपात पल रहे हैं। कचक्का महंगाई में विदेशी पगार का इससे उम्दा स्वदेशीकरण और हो भी क्या सकता है!
मैडम पुरनिया का मानना है कि कहीं महंगाई-सहंगाई नहीं। सब बजट के बंदों की माया है। अपने राव साहब से कंपनी वाले कचूमर निकाल लेते हैं काम कराते-कराते। छियालीस के हो भी लिये। माथा फिर गया है। आज कल और कुछ नहीं तो महंगाई-मंतरा पढ़ रहे हैं। न चैन से रहेंगे, न रहने देंगे। भला बताओ कि जिस शख्स को किटी पार्टी से इतनी खुन्नस है, उसके दिमाग के चंगा होने की क्या गारंटी! अब महंगाई से मरें निकम्मे लोग, अपुन को क्या करना। बाकी बात रही तो, जिम्मा सरकार का। वो जाने, उसका काम। मनमोहन किसलिए कुस्री तोड़ रहे हैं? चिदंबरम् किस दिन के लिए हैं? डीडी-1 पर चिंतन चल ही रहा है बड़े-बड़ों का। आलोक मेहता से प्रभु चावला तक जुटे हुए गुत्थी फेटने में। बाकी चैनल भी और दुनिया भर के अखबार जंतर-मंतर से न्यूयार्क पोस्ट तक कितनी जोर-जोर की पीपी बजा रहे हैं। मथानी मार रहे हैं।
...और बुश बुरा क्या कहते हैं कि इंडियन बेहिसाब भकोसते हैं। ये लो, उस बयान पर भी बहत्तर तरह की बकवास। कित्ता तूल। ये भी कोई बात हुई! तेली का तेल जले, मशालची का कलेजा फटे...क्यों? घरों में इतने बड़े-बड़े किचन, बाहर दुनिया भर के होटल-रेस्टोरेंट आखिर किस वास्ते....ऐं!! ऐसे-ऐसे लजीज आइटम कि अपुन नाचीज की भी लार चू पड़ती है। और एक अपने जनाब कि इन्हें भरम की भूतनी से फुर्सत नहीं। अरे, चार दिन की जिंदगी। काहे की हैहै-खैखै। चुप मारो अलाय-बलाय से। रामदेव का योगा करो, बापू के प्रवचन सुनो। मन-चित्त चंगा रखो। चैन से जीयो और हमे भी जीने दो। फितूरपंथी के लिए तो सारी दुनिया पड़ी है।
बहू-बेटों के बीच हंसी-ठट्ठा में प्रायः मैडम पुरनिया गजब का दार्शनिक बाना ओढ़ लेती हैं। जो सुन ले, तो जान ले कि वो कोरी कुढ़मगज गृहिणी नहीं। नये टॉपिक पर टपकते हुए कहती हैं....बड़े-बड़े अर्थशास्त्री, मंत्री, वित्तमंत्री, प्रधानमंत्री तक बेचारे महंगाई के पीछे हाथ धोकर पड़े हैं। हम सब न तीन में, न तेरह में। खामख्वाह की आह-ऊह। काहे का बेंजा अपना भेजा खराब करें! जिनकी ड्यूटी बनती है, वो मगजमारी करें न। लेना एक, न देना दो....क्या कि महंगाई बढ़ रही है...हुंह्। और कोई काम नहीं बचा क्या जी! इत्ता ही जाप-जादू का शौक चर्राया है तो जाओ न रेहड़ी वालों के मुहल्ले में। रहो वहीं। ठेल-ढकेल लगाओ। बेंचो अमरूद-संतरा। दो ही दिन में पता चल जायेगा आटा-दाल का भाव। काहे जर्मनों की कंपनी में झख मार रहे चौदह-चौदह घंटे। पेट फुला के तो कोई भी चंठ-चिंतन कर लेगा। अपुन का तो साफ-साफ मानना है कि जिसका काम, उसी को भावै, हलुका ले के बाभन धावै....झूठमूठ का....हीही-हीही। और क्या।
बारिश हुई है। कितना मस्त मौसम है आज।
चलो गोभी के मगौड़े तलते हैं।
महंगाई की मौत मरें मकोड़े।
अपुन को क्या!!
Saturday, June 21, 2008
पुस्तकचोर बच्चे यानी तरह-तरह के चोर
हाय! वे मेरी किताबें कौन ले गया? इधर ढूंढूं, उधर ढूंढूं, कहीं न मिलें। कौन ले गया? अभी यहीं तो रखी थीं! हाय! मेरी लायब्रेरी, इसे किसकी नजर लग गयी। बाद में पता चला कि घर का भेदी लंका ढाए, जब्बर चोर सेंध में गाए। पुस्तकचोर और कोई नहीं, अपने ही बच्चे हैं, अपने ही साथी-संघाती हैं, नाते रिश्तेदार हैं, परिचित-सुपरिचत हैं, जो एक-एक कर मेरी आंख बचाकर आदि विद्रोही को उठा ले गए। परती परिकथा लुप्त हो गई। मैला आंचल गुम हो गया। गोदान भी गायब है। धीरे बहो दोन रे, जाने किसके घर में बह रही होगी! जिस रैक में होती थी युद्ध और शांति, वहां रद्दी के अखबार ठुसे पड़े हैं। टालस्टॉय के चारो सेट गायब, साथ में अन्ना केरेनीना भी लापता। उफ्, ये क्या हो रहा है? एक-एक कर कौन ठिकाने लगा रहा है मेरी थाती। माथा ठनका तो मैं छानबीन में जुटा। काफी मशक्कत, ताक-झांक, पूछताछ के बाद आखिर एक दिन सुराग हाथ लग ही गया।
यूं ही एक दिन घूमते-घामते अपने परिचित के घर पहुंच गया। अंदर घुसते ही देखा कि उनका सबसे छोटा बच्चा फर्श पर युद्ध और शांति के चौथे खंड को दो टुकड़े कर उसके पन्नों से खेल रहा है, कुछ पन्ने इधर-उधर बिखरे पड़े हैं। देख कर मेरा कलेजा फट गया। उल्टे पांव सनाका खाये घर लौट आया।
लेकिन सबसे बड़ा चोर तो मेरे मझले बेटे का सहपाठी निकला। अभी 11वीं में पढ़ रहा है। हाथ की सफाई में अव्वल है, ऐसा तो मैंने काफी पहले से सुन रखा था। लेकिन उसकी करनी का फल मैंने भोगा पहली बार। एक दिन दोपहर में भोजन के बाद रागदरबारी पढ़ने को मन मचला तो लायब्रेरी की निचली रैक में उसे ढूंढने लगा। वह भी लापता। तभी ध्यान आया कि मेरे मझले बेटे का सहपाठी टिन्नू कुछ दिन पहले मेरी पत्नी को राग दरबारी के किस्से सुनाकर जोर-जोर से हंस रहा था। तुरंत मैंने पैरों में चप्पल डाली और पहुंच गया उसके घर। टुन्नू घर के सामने के पार्क में क्रिकेट खेल रहा था। बुलाकर बहाने से उसे उसके घर ले गया। सुरागगशी के लिए मैंने उसके कोर्स की हिंदी की किताब मांगी और पीछे-पीछे मैं भी उसके भरे-पुरे वाचनालय में पहुंच गया। देखकर मेरी आंखें फटी रह गयीं। मेरी गायब हो चुकी ज्यादातर किताबें उसकी आलमारी पर बेतरतीब लदी पड़ी थीं। गुस्से में मैंने तत्काल उसका गिरेबां पकड़ा और घसीटते हुए उसके पिता के सामने ले गया। उलाहने में सब कुछ बक डाला। उसके पिता भी हक्के-बक्के। उन्होंने बड़ी शालीनता से पूछा कि आखिर हुआ क्या? उन्होंने मुझे आज तक इस रूप में कभी नहीं देखा-सुना था। जब पूरा वाकया उन्हें पता चला तो वे भी लाल-पीले हो उठे। इस बीच मुझे अपने गुस्से पर गुस्सा या और शर्मींदगी भी। जाने क्या-क्या कह डाला था चुन्नू को।
उसने चोरी तो की थी लेकिन किताबों की। अब इस चोरी को क्या कहें। एक ऐसा सच, जो न उगला जा रहा था, न निगला। टुन्नू फफक-फफक कर रो रहा था। मैं उसे समझाने लगा कि बेटे, किताबें पढ़नी ही थीं तो तुम मुझसे मांग ले आता। चोरी करने की क्या जरूरत थी। और मैं मन-ही-मन उसकी इस करनी पर जाने क्यों अभिभूत-सा होने लगा, यह सोच-सोचकर कि चलो मेरी कालोनी में आज के समय में एक ऐसा बच्चा भी तो है जो अन्ना केरेनीना, गोदान और आदिविद्रोदी पढ़ने का शौकीन है। उस दिन के बाद मैंने अपनी लायब्रेरी की चाबी उसके हवाले कर दी।
यूं ही एक दिन घूमते-घामते अपने परिचित के घर पहुंच गया। अंदर घुसते ही देखा कि उनका सबसे छोटा बच्चा फर्श पर युद्ध और शांति के चौथे खंड को दो टुकड़े कर उसके पन्नों से खेल रहा है, कुछ पन्ने इधर-उधर बिखरे पड़े हैं। देख कर मेरा कलेजा फट गया। उल्टे पांव सनाका खाये घर लौट आया।
लेकिन सबसे बड़ा चोर तो मेरे मझले बेटे का सहपाठी निकला। अभी 11वीं में पढ़ रहा है। हाथ की सफाई में अव्वल है, ऐसा तो मैंने काफी पहले से सुन रखा था। लेकिन उसकी करनी का फल मैंने भोगा पहली बार। एक दिन दोपहर में भोजन के बाद रागदरबारी पढ़ने को मन मचला तो लायब्रेरी की निचली रैक में उसे ढूंढने लगा। वह भी लापता। तभी ध्यान आया कि मेरे मझले बेटे का सहपाठी टिन्नू कुछ दिन पहले मेरी पत्नी को राग दरबारी के किस्से सुनाकर जोर-जोर से हंस रहा था। तुरंत मैंने पैरों में चप्पल डाली और पहुंच गया उसके घर। टुन्नू घर के सामने के पार्क में क्रिकेट खेल रहा था। बुलाकर बहाने से उसे उसके घर ले गया। सुरागगशी के लिए मैंने उसके कोर्स की हिंदी की किताब मांगी और पीछे-पीछे मैं भी उसके भरे-पुरे वाचनालय में पहुंच गया। देखकर मेरी आंखें फटी रह गयीं। मेरी गायब हो चुकी ज्यादातर किताबें उसकी आलमारी पर बेतरतीब लदी पड़ी थीं। गुस्से में मैंने तत्काल उसका गिरेबां पकड़ा और घसीटते हुए उसके पिता के सामने ले गया। उलाहने में सब कुछ बक डाला। उसके पिता भी हक्के-बक्के। उन्होंने बड़ी शालीनता से पूछा कि आखिर हुआ क्या? उन्होंने मुझे आज तक इस रूप में कभी नहीं देखा-सुना था। जब पूरा वाकया उन्हें पता चला तो वे भी लाल-पीले हो उठे। इस बीच मुझे अपने गुस्से पर गुस्सा या और शर्मींदगी भी। जाने क्या-क्या कह डाला था चुन्नू को।
उसने चोरी तो की थी लेकिन किताबों की। अब इस चोरी को क्या कहें। एक ऐसा सच, जो न उगला जा रहा था, न निगला। टुन्नू फफक-फफक कर रो रहा था। मैं उसे समझाने लगा कि बेटे, किताबें पढ़नी ही थीं तो तुम मुझसे मांग ले आता। चोरी करने की क्या जरूरत थी। और मैं मन-ही-मन उसकी इस करनी पर जाने क्यों अभिभूत-सा होने लगा, यह सोच-सोचकर कि चलो मेरी कालोनी में आज के समय में एक ऐसा बच्चा भी तो है जो अन्ना केरेनीना, गोदान और आदिविद्रोदी पढ़ने का शौकीन है। उस दिन के बाद मैंने अपनी लायब्रेरी की चाबी उसके हवाले कर दी।
Sunday, June 15, 2008
अगर बिके.......तो ब्लॉग बेंच दो
देखो-देखो काग-भुसंडी!
खुला-खुला बाजार खड़ा है
बेंचो-बेंचो काग-भुसंडी!
अपने मन की आग बेंच दो,
धुले-धुलाए दाग बेंच दो,
गिटपिट राग-विराग बेंच दो,
फूहड़-फिल्मी फाग बेंच दो,
बुझते हुए चिराग बेंच दो
और दुधमुंहे नाग बेंच दो,
अगर बिके तो ब्लॉग बेंच दो....बेंचो-बेंचो काग-भुसंडी!
फर्जी साधु-फकीर बेंच दो,
अपने संगम-तीर बेंच दो,
गंगा-यमुनी नीर बेंच दो,
जान परायी पीर बेंच दो,
बापू की तकरीर बेंच दो,
नेहरू की तस्वीर बेंच दो,
दिल्ली की तकदीर बेंच दो....बेंचो-बेंचो काग-भुसंडी!
तालपचीसी तान बेंच दो,
अपने बहरे कान बेंच दो,
जज हो, तो ईमान बेंच दो,
सैंतालिस की शान बेंच दो
बिके तो संविधान बेंच दो,
राष्ट्र बेंच दो, गान बेंच दो,
सारा हिंदुस्तान बेंच दो, ....बेंचो-बेंचो काग-भुसंडी!
खुला-खुला बाजार खड़ा है
बेंचो-बेंचो काग-भुसंडी!
अपने मन की आग बेंच दो,
धुले-धुलाए दाग बेंच दो,
गिटपिट राग-विराग बेंच दो,
फूहड़-फिल्मी फाग बेंच दो,
बुझते हुए चिराग बेंच दो
और दुधमुंहे नाग बेंच दो,
अगर बिके तो ब्लॉग बेंच दो....बेंचो-बेंचो काग-भुसंडी!
फर्जी साधु-फकीर बेंच दो,
अपने संगम-तीर बेंच दो,
गंगा-यमुनी नीर बेंच दो,
जान परायी पीर बेंच दो,
बापू की तकरीर बेंच दो,
नेहरू की तस्वीर बेंच दो,
दिल्ली की तकदीर बेंच दो....बेंचो-बेंचो काग-भुसंडी!
तालपचीसी तान बेंच दो,
अपने बहरे कान बेंच दो,
जज हो, तो ईमान बेंच दो,
सैंतालिस की शान बेंच दो
बिके तो संविधान बेंच दो,
राष्ट्र बेंच दो, गान बेंच दो,
सारा हिंदुस्तान बेंच दो, ....बेंचो-बेंचो काग-भुसंडी!
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