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Monday, September 8, 2008

एक हिरन की आत्मकथा के चंद कतरे





















रेत
है सामने
रेत
का समंदर है....
दौड़ा जा रहा है हिरना पियासा
उसका कोई जंगल है
पंचतंत्र की कथाओं में पढ़ी गयी कोई पंचाट,
फिर तो उसे
उसे अंततः मरना ही होगा।

सुअर कितने सानंद हैं,
रहा है दुनिया भर के नाबदानों में
इतना सारा अन्न,
आदमी हैं कहां,
सब-के-सब मर गये क्या रे!
पूछता है कोई
अक्तूबर क्रांति
या उड़ीसा या बिहार के पिछवाड़े से
बड़ा अजीब हाल है...उफ्!!




हिरन पानी खोज रहा है,
नौजवान नौकरियां,
नेता और अफसर दलाली के अड्डे,
कवि और लेखक
पुरस्कारों और अखबारों की सुर्खियां,
पत्रकार पैकेज,
बुद्धिजीवी खलनायकों के पनाहगाह
और शब्द
अपने अर्थ के मायने....उफ्!!!