
जब सुबह होती है पूरब से,
कोपलें फूटती हैं फुनगियों से,
सलोना शिशु
झांकता है पहली बार हो चुकी मां के
आंचल से.
कैसा लगता है
जब धूप से मूर्च्छित
पृथ्वी के सीने पर पहली बार
लरजती है रिमझिम,
बूंदें थिरक-थिरक कर नाचती हैं,
फूलों, नीम की पत्तियों और कनैल की गंध
हवाओं से लिपट-लिपट कर
चूमती है फिंजाओं को
मौसम की नस-नस में समा जाती है
तनिक स्पंदन से
बादलों के होठ रिसते हैं
पहली-पहली बार.
...और कैसा लगता है
मिलन,
आलिंगन,
इम्तिहान,
नशा,
प्यार की
पहली कविता लिखने के बाद.
कैसा लगता होगा
किसी आंगन की तुलसी
किसी चौखट के रोली-चंदन
और किन्हीं दीवारों पर दर्ज सांसों की इबारत
पहली-पहली बार पढ़ लेने के बाद.
जैसे डूबते सूरज की तरह
शर्माती हुई लाल-लाल बर्फ की परतें,
झरनों की हथेलियां
गुदगुदाती हुई फूलों की घाटी पूछ रही हो
हिमकमलों का पता-ठिकाना,
शायद उस हेमकुंड से पहले
उन्हीं राहों पर हैं कहीं
ताम्रपत्रों की कतारें,
उतनी ऊंचाई चढ़ते-चढ़ते
कितने गहरे तक उतर जाती हैं
गर्म-गर्म सांसें
नर्म-नर्म एहसासों की.
ओ मेरे चंदन!
तुम्हारे नाम रोज-रोज लिखूं
ऐसे ही एक-एक पाती,
काश इन्हें थम-थम कर पढ़ लेने का
कोई संदेसा भी गूंजता रहे
बजता रहे आसपास
सरसों के घुंघरुओं की तरह गुनगुनाते हुए
ताल के खुले सन्नाटे में.