♦ अभिषेक श्रीवास्तव
मैं मानता हूं कि लिखने में भाषा की शुचिता कायम रहे तो बेहतर है। इसीलिए पहले डिसक्लेमर दिये दे रहा हूं कि मेरी भाषा को मेरी मौलिक भाषा नहीं, नामवर जी से उधार ली हुई भाषा माना जाए।
तो हुआ यह कि नामवर जी ने हंस की 24वीं संगोष्ठी युवा रचनाशीलता और नैतिक मूल्य में 31 जुलाई 2009 को अपनी आदत के मुताबिक अपने वक्तव्य में लीप-पोत कर सब बराबर कर डाला। लेकिन उन्होंने जिस नोट पर अपना वक्तव्य समाप्त किया, वह ज्यादा महत्वपूर्ण है और मैं बात वहां से शुरू करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं। उन्होंने अजय नावरिया को राजेंद्र यादव का राहुल गांधी करार देते हुए उन्हें हिदायत दी कि यदि उन्होंने ऐसे लौंडों से बचने की कोशिश नहीं की, तो वे उनका हाथ काट ले जाएंगे यानी उनका उपयोग कर लेंगे।
जाहिर है, नामवर जी ऐसे लौंडों के कारनामों से ज़रूर परिचित होंगे। हर पहलवान अपनी उम्र की ढलान पर लौंडे पालता है। उन्हें खिलाता-पिलाता भी है। बदले में लौंडा भी उस्ताद की सुख-सुविधाओं का ख्याल रखता है। हिंदी साहित्य में यह चलन नया नहीं है, हां ऐसे लौंडे को युवा रचनाशीलता के प्रतिनिधि के रूप में राजेंद्र यादव, अशोक वाजपेयी, नामवर सिंह और अरुंधति राय सरीखे लोगों के साथ मंच साझा करने का अधिकार इस देश के युवा रचनाकारों ने शायद अब तक नहीं दिया है। इसीलिए नामवर जी द्वारा अजय नावरिया पर टिप्पणियों ने जितनी तालियां ऐवान-ए-ग़ालिब के सभागार में बटोरी, उतनी किसी और की टिप्पणियों ने नहीं। अजय नावरिया और राजेंद्र यादव को छोड़ कर बाकी हर किसी के चेहरे पर संतोष का भाव दिख रहा था, जैसे कि काफी देर से निवृत्त होने की इच्छा सब पाले बैठे हों और नामवर जी ने सुलभ शौचालय का दरवाजा खोल दिया हो।
बाहर मिले युवा रचनाशीलता के एक और पंछी पुष्पराज। आप देखिए कि कैसे दिल मिलने की कहावत चरितार्थ होती है। पुष्पराज ने कहा – भाई, अजय नावरिया तो यूथ आइकॉन हैं। कितना अच्छा तो बोल रहे हैं। मैंने कहा – वे बोल कहां रहे थे। वे तो पढ़ रहे थे। उन्होंने खुद ही बताया था कि उन्हें बोलने की तैयारी करने का वक्त नहीं मिला, सो लिख कर ले आए। लिखने में ज्यादा वक्त लगता है या बोलने की तैयारी करने में, यह तय करने का अधिकार सिर्फ अजय नावरिया को ही दिया जाना चाहिए। पुष्पराज जितना तेज फड़फड़ाये थे, उतनी ही तीव्र गति से सिमट भी गये। मैं समझ गया कि उन्होंने फिल्म गॉडफादर नहीं देखी है।
खैर… धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की पारिभाषिक शब्दावली से लेकर कांग्रेस के महिमामंडन तक अजय नावरिया ने इस गोष्ठी में सब कुछ किया। 40 मिनट तक लोग उन्हें इसलिए सुनते रहे क्योंकि अब तक ऐसी टाइम मशीन नहीं बन सकी है, जिसमें भविष्य में गोता लगा कर अरुंधति या नामवर जी को सुना जा सकता था। ऐसा लग रहा था जैसे वह एमए की किसी पुस्तक की कुंजी पढ़ रहे हों। उन्होंने सवाल उठाया – धर्म की जगह काम को पहले क्यों नहीं होना चाहिए…? जामिया के परिसर में टहलने वाले जानते हैं कि अजय नावरिया ने हिंदू धर्मशास्त्र के इस अनुक्रम को तोड़ने का काम बखूबी किया है। आखिर प्राध्यापकी तक पहुंचने के लिए सिर्फ शास्त्रों को जानना ही जरूरी थोड़े होता है… उसे तोड़ना भी पड़ता है। प्रोफेसरी का मामला तो जेएनयू के एक सज्जन ने फंसा दिया, वरना उस्ताद ने कई अजगरों को इस मामले में तैनात कर रखा था। क्या जाने, कल को वे प्रोफेसर बन ही जाएं।
यह तो अवांतर प्रसंग हुआ, नामवर जी की बात छूट गयी।
…तो नामवर जी ऐसे लौंडों से बचने की सलाह राजेंद्र जी को दे रहे थे। इस बात का पुरज़ोर समर्थन युवा रचनाशीलता की एक और बेचैन प्रातिनिधिक आत्मा ने शौचालय में अपनी नाटकीय समक्षता के दौरान किया। कुछ दिनों पहले वे भी लौंडों की जमात में शामिल थे, लेकिन उन्हें क्या पता था कि उनका उस्ताद ही लौंडई में फंस जाएगा। संयोग देखिए कि उस उस्ताद का नाम भी अजय ही है… जी हां, अजय तिवारी। आजकल वह विश्वविद्यालय से यौन उत्पीड़न के मामले में बर्खास्त चल रहे हैं। वरना तो अब तक लौंडे की नौकरी लग चुकी होती, पीएचडी बेकार न जाती।
दिल्ली विश्वविद्यालय से लेकर जामिया के हिंदी विभाग तक ऐसे लौंडे आज अपने उस्तादों के कान काट रहे हैं। जामिया में ही ख़बर फैली हुई है कि अजय नावरिया अपनी नामराशि वाले अजय तिवारी के उत्तराधिकारी बन सकते हैं क्योंकि वे काम को धर्म की जगह पर प्रतिष्ठित करवाना चाहते हैं। अजय तिवारी कर्म में विश्वास रखते थे, नावरिया जो करते हैं वह कह भी देते हैं। फर्क सिर्फ इतना है।
वैसे कहने के मामले में अजय नावरिया बेहद बिंदास हैं। आज तक मैंने किसी भी लेखक को फोन कर के समीक्षक से यह कहते नहीं सुना कि भाई, मेरी पुस्तक की अच्छी समीक्षा कर दीजिएगा। अजय नावरिया शर्माते नहीं हैं। बहुत डेमोक्रेटिक हैं। वह एक नहीं दो-दो बार फोन कर के कहते हैं कि मेरी समीक्षा का क्या हुआ… कर दीजिए, नया साल आने वाला है। इसको कहते हैं डेमोक्रेटिक होना… शायद इसीलिए कांग्रेसी डेमोक्रेसी बहुत से लोगों को खूब भाती है।
तो हिंदी में युवा रचनाशीलता का प्रतिनिधि आज इतना डेमोक्रेटिक हो चला है कि मंच से अपने गुरुवर के मुंह से अपनी आलोचना सुन कर खुल कर हंसता है। शायद वह कुछ नहीं समझता, शायद वह कुछ ज्यादा ही समझता है। वह इतना विवेकवान हो चला है कि अपने पॉलिटिकली इनकरेक्ट लिखित वक्तव्य में सवाल उठाता है कि क्या भारतीय नैतिकता को हिंदू नैतिकता कहना पॉलिटिकली करेक्ट होगा। वह मौके-बेमौके कदम-कदम पर रेटॉरिक रचता है। बीच-बीच में संस्कृत का श्लोक भी हिब्रू जैसे बोलता है। और उसे कांग्रेस की जीत विकास की जीत दिखाई देती है। [ इस पर तो अरुंधति ने जितना कहना था, कह दिया। पता नहीं 'लौंडे' को समझ भी आया कि नहीं ]
अब आप ही बताएं कि युवा रचनाशीलता के ऐसे प्रतिनिधि को आचार्य ने यदि लौंडा कह ही दिया, तो क्या ग़लत किया। इसमें किसी नैतिक मूल्य का ह्रास होता है क्या? जबकि आचार्य खुद मानते हैं कि जवानी अपने आप में एक मूल्य है। अब यह मूल्य लौंडे में है कि नहीं, यह तो तभी पता चल पाएगा, जब वह अपनी नामराशि की गति को प्राप्त होगा। पता नहीं ऐसा हो भी पाएगा कि नहीं, हालांकि कवायद अंदरखाने चालू है। फिलहाल तो उस्ताद का हाथ सिर पर है ही और लौंडे के हाथ में है रचनाशीलता का उस्तरा। मूंडने और मुंडवाने भर की डेमोक्रेसी हमेशा रही है और रहेगी, आचार्य कुछ भी बकते रहें।
( टिप्पणीकार वरिष्ठ मीडिया फ्रीलांसर और साहित्य के रसिया हैं )
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