एक
तृप्ता चौंक के जागी,
लिहाफ़ को सँवारा
लाल लज्जा-सा आँचल
कन्धे पर ओढ़ा
अपने मर्द की तरफ़ देखा
फिर सफ़ेद बिछौने की
सिलवट की तरह झिझकी
और कहने लगी :
आज माघ की रात
मैंने नदी में पैर डाला
बड़ी ठण्डी रात में –
एक नदी गुनगनी थी
बात अनहोनी,
पानी को अंग लगाया
नदी दूध की हो गयी
कोई नदी करामाती
मैं दूध में नहाई
इस तलवण्डी में यह कैसी नदी
कैसा सपना?
और नदी में चाँद तिरता था
मैंने हथेली में चाँद रखा, घूँट भरी
और नदी का पानी –
मेरे खून में घुलता रहा
और वह प्रकाश
मेरी कोख में हिलता रहा।
दो
फागुन की कटोरी में सात रंग घोलूँ
मुख से न बोलूँ
यह मिट्टी की देह सार्थक होती
जब कोख में कोई नींड़ बनाता है
यह कैसा जप? कैसा तप?
कि माँ को ईश्वर का दीदार
कोख में होता.
तीन
कच्चे गर्भ की उबकाई
एक उकताहट-सी आई
मथने के लिए बैठी तो लगा मक्खन हिला,
मैंने मटकी में हाथ डाला तो
सूरज का पेड़ निकला।
यह कैसा भोग था?
कैसा संयोग था?
और चढ़ते चैत
यह कैसा सपना?
मेरे और मेरी कोख तक –
यह सपनों का फ़ासला।
मेरा जिया हुलसा और हिया डरा,
बैसाख में कटने वाला
यह कैसा कनक था
छाज में फटकने को डाला
तो छाज तारों से भर गया...
आज भीनी रात की बेला
और जेठ के महीने –
यह कैसी आवाज़ थी?
ज्यों जल में से थल में से
एक नाद-सा उठे
यह मोह और माया का गीत था
या ईश्वर की काया का गीत था?
कोई दैवी सुगन्ध थी?
या मेरी नाभि की महक थी?
मैं सहम-सहम जाती रही,
डरती रही
और इसी आवाज़ की सीध में
वनों में चलती रही...
यह कैसी आवाज़,
कैसा सपना?
कितना-सा पराया?
कितना-सा अपना?
मैं एक हिरनी –
बावरी-सी होती रही,
और अपनी कोख से
अपने कान लगाती रही।
छहआषाढ़ का महीना –
स्वाभाविक तृप्ता की नींद खुली
ज्यों फूल खिलता है,
ज्यों दिन चढ़ता है
"यह मेरी ज़िन्दगी
किन सरोवरों का पानी
मैंने अभी यहाँ
एक हंस बैठता हुआ देखा
यह कैसा सपना?
कि जागकर भी लगता है
मेरी कोख में
उसका पंख हिल रहा है..."
सात
कोई पेड़ और मनुष्य
मेरे पास नहीं
फिर किसने मेरी झोली में
नारियल डाला?
मैंने खोपा तोड़ा
तो लोग गरी लेने आये
कच्ची गरी का पानी
मैंने कटोरों में डाला
कोई रख ना रवायत ना,
दुई ना द्वैत ना
द्वार पर असंख्य लोग आये
पर खोपे की गरी –
फिर भी खत्म नहीं हुई।
यह कैसा खोपा!
यह कैसा सपना?
और सपनों के धागे कितने लम्बे!
यह छाती का सावन,
मैंने छाती को हाथ लगाया
तो वह गरी का पानी –
दूध की तरह टपका।
यह कैसा भादों?
यह कैसा जादू?
सब बातें न्यारी हैं
इस गर्भ के बालक का चोला
कौन सीयेगा?
य़ह कैसा अटेरन?
ये कैसे मुड्ढे?
मैंने कल जैसे सारी रात
किरणें अटेरीं...
असज के महीने –
तृप्ता जागी और वैरागी
"अरी मेरी ज़िन्दगी!
तू किसके लिए कातती है मोह की पूनी!
मोह के तार में अम्बर न लपेट जाता
सूरज न बाँधा जाता
एक सच-सी वस्तु
इसका चोला न काता जाता..."
और तृप्ता ने कोख के आगे
माथा नवाया
मैंने सपनों का मर्म पाया
यह ना अपना ना पराया
कोई अज़ल का जोगी –
जैसे मौज में आया
यूँ ही पल भर बैठा –
सेंके कोख की धूनी...
अरी मेरी ज़िन्दगी!
तू किसके लिए कातती है –
मोह की पूनी.
नौ
मेरा कार्तिक धर्मी,
मेरी ज़िन्दगी सुकर्मी
मेरी कोख की धूनी,
काते आगे की पूनी
दीप देह का जला,
तिनका प्रकाश का छुआ
बुलाओ धरती की दाई,
मेरा पहला जापा.
5 comments:
गर्भधारण से प्रसव तक हर माह की अनुभूतियां जो शब्दों से परे होती हैं कोई अमृता प्रीतम ही उनको शब्दों में पिरो सकती है ।
कुछ चीजें समझ में न आये, फिर भी कितनी खूबसूरत लगती हैं. पेश करने के लिए आभार
सारी की सारी कवितायेँ एक से बढ़कर एक हैं...
इसे पढ़वाने के लिए शुक्रिया
काफी मेहनत किया है आपने। उसे उपेक्षित किया जाना असंभव और नाजायज है। संग्रहित कविताएं ब्लागर साथियों तक पहुंचाने के लिए बधाई स्वीकार करें।
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