Thursday, November 19, 2009

अब 'मीडिया' मायने क्या?

क्या मीडिया का धंधा सचमुच इतना घिनौना हो गया है? जैसा कि ऑन लाइन पढ़ने को मिल रहा है, गालियों की में लोग उलाहने देने लगे हैं, क्या सचमुच ''मीडिया'' मायने रंडी हो गया है? मीडिया घराने चलाने वाले विज्ञापनों के धंधे में इतने अंधे हो चुके हैं कि उनकी सोच और वेश्यावृत्ति-वृत्त में क्या कोई अंतर शेष नहीं बचा है? तो ऐसे मीडिया घरानों के बड़े पदों पर बैठे टाई-बूट वालों के लिए क्या संबोधन इस्तेमाल किया जाना चाहिए? जो चैनलों पर जोर-जोर से उछल-उछल कर रात-दिन एंकर-संपादक-मैनेजर के रूप में भौंकते रहते हैं, उनका इस रंडीखाने के विकास में कितना योगदान और कुसूर है? आने वाला समय ऐसे समूहों के साथ क्या सुलूक करने जा रहा है? कालेधन वाले क्यों दनादन अखबार-चैनल खोलते जा रहे हैं? अखबार-चैनल वाले और उनके चंपू कितना काला धन कमा रहे हैं? ये सब सरकार की चापलूसी क्यों करते रहते हैं? इनके यहां रोजगार पाने वाले अफसरों की दलाली क्यों करने लगते हैं? जो कुछ न मालूम हो, वह भी दिल्ली प्रेस क्लब चले जाओ, मालूम हो जाएगा। ये सब करके क्या सभी इतने ताकतवर हो गए हैं, कि कोई इनका कुछ नहीं कर सकता? तो इनके किए की सजा कौन देगा? प्रेस परिषद अध्यक्ष तक इन सबों के कारनामों से दुखी हैं।
भाषा