अखबारों के घाट पर भई माफिया भीड़।
पत्रकार लेखनी घिसैं, मजा करैं धनवीर।।
खबरों के मस्तूल पर विज्ञापन के ठाट।
मालिक खर्राटा भरै, बिनैं खबरची खाट।।
बिल्डर चैनल खोलकर चैन से पान चबाय।
कपटी संपादक हुआ, रोज नौकरी खाय।।
रोजी-रोटी के लिए दिन भर थककर चूर।
खबर-खबर खबरा रहे हैं बंधुआ मजदूर।।
पैसा के सब दास हैं, इसको करो प्रणाम।
मंदिर में पैसा धरौ, खुश होंगे भगवान।।
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7 comments:
बहुत बढिया लिखा .. पूंजीवाद का यही तो नुकसान है !!
भाई जी
सादर वन्दे!
वर्त्तमान के हकीकत को बड़े ही बखूबी तरीके से प्रस्तुत किया है आपने, मेरा डंडा भी साथ में मारिये,
हालत इस मिडिया की देख कबीरा रोए
सब पे सूली लटक रही क्या पाए क्या खोए,
क्या पाए क्या खोए सब टी आर पी देखें
इस भीड़न की भीड़ में सच न जाने कोए.
रत्नेश त्रिपाठी
काव्य शरबत में शब्द सत्य का शहद मिलाकर बहुत खूब रसीला पेय बना दिया आपने।
आपकी लेखनी को मेरा नमन स्वीकार करें.
वाह प्यारे वाह...
वाह्! बहुत बढिया दोहावली रची आपने......सत्य दर्शन्!
HI,
Very nice yaar, Good job..This is impressive..
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