Thursday, March 5, 2009

चिराग तेरे तबस्सुम से रोज जलते हैं

कुछ उधर से हो आए, वहां से हो आए, जहां बार-बार लौट जाने का दिल करता है. उन दिनों इन्हीं महीनों के आसपास उठने वाली वो निगाहे करम छोड़ आए थे. हमें भी कहां मालूम था कि हमारी जिंदगी के इश्क का वो पहला ख्वाब, हमे भी भूल चुका है, उसे भी याद नहीं. सोच कर गए थे कि बगैर इल्म भी जैसे हवाएं चलती हैं, यूं ही कुछ अहले मुहब्बत की याद आ जाए. लेकिन किसको रोता है उम्र भर कोई, आदमी जल्द भूल जाता है. शक था वहां के लिए कि यादें रह जाती हैं. मैं भी ऐ दोस्त पी गया आंसू. वहां भी वही सवाल छोड़ आया कि ये दुनिया छूटती है, मेरे जिम्मे कुछ न रह जाए, बता ऐ मंजिले-हस्ती तेरा कितना निकलता है. यहां की दुनिया भी कैसे भूल पाता. कुल जमा जोड़-घटा पिछले 38 घंटे की अपुन चिट्ठे की दुनिया से दूर, बहुत दूर. वही बात कि कल किसी को कोई करेगा न याद, आज रो लें किसी की याद में हम.
अब तो इधर ही रहना है, चाहे जिधर रहना है, अपनी इसी दुनिया के साथ रहना है. काश, वहां भी साथ में लैपटॉप टांग ले गया होता तो उतनी वीरानियों और अकेलेपन का विष नहीं पीना पड़ता. आज तो बस इतना ही चिट्ठाकार साथियों आप सबके नाम कि....

कुलूब नूर के सांचे में ढलते जाते हैं.
चिराग तेरे तबस्सुम से रोज जलते हैं.

2 comments:

नीरज गोस्वामी said...

सुभान अल्लाह....क्या शेर है...वाह...
नीरज

अनिल कान्त said...

बहुत ही खूबसूरती से लिखा है आपने ....


मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति