भारत में र्आिथक मंदी का असर दिखाई देने लगा है। इस असर को कम करने के लिए रिजर्व बैंक ने बाजार में ज्यादा पैसा उपलब्ध कराने से संबंधित जो कदम उठाए हैं, अभी तक उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। चूंकि बैंकों को रिजर्व बैंक से कम दर पर रूपया मिल सकता है, इसलिए उन्होंने जमा रकमों पर देय अपनी ब्याज दरें बढ़ा दी हैं। इससे उनकी जमा राशियों में तेजी से वृद्धि हो रही है। लेकिन यह कोई समाधान नहीं है। मुद्दे की बात यह है कि क्या बैंक अपने यहां जमा राशियों का उत्पादक निवेश कर सकते हैं। मंदी की आहट आने के पहले से ही यह समस्या बनी हुई थी। भारत के नागरिकों को दुनिया भर में सर्वोच्च बचत करने वाला माना जाता है। युवा पीढ़ी में यह प्रवृत्तिा कुछ कम है, परंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उसके पूंजीगत खर्चे भी ज्यादा हैं। बीस-पच्चीस साल पहले नौकरीपेशा लोग रिटायर हो जाने के बाद और व्यवसाय करनेवाले उल्लेखनीय सफलता हासिल करने के बाद अपना घर बनवाया करते थे। आज की सफल युवा पीढ़ी सबसे पहले मोटरगाड़ी और फ्लैट पर ध्यान देती है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि इन दोनों चीजों तथा अन्य उपभो‡ा वस्तुओं के लिए कर्ज सहजता से मिल जाता है। दरअसल, बैंकों के पास इतना पैसा आ गया है कि कर्ज देने में उनके बीच जबर्दस्त प्रतियोगिता चल रही है। बाजार में तरलता की मात्रा बढ़ जाने से बैंकों के सामने उपस्थित यह समस्या तेज हो रही है कि वे अपने पास जमा पैसे का क्या करें। जिस तरह र्आिथक विकास एक सुचक्र है जिसमें एक सफलता दूसरी सफलता की आ॓र ले जाती है, वैसे ही मंदी एक दुश्चक्र है, जिसमें एक क्षेत्र की विफलता दूसरे सभी क्षेत्रों को प्रभावित करती है। हमारा मोटरगाड़ी उघोग संकट में आ गया है, जिसके चलते टाटा को लखनऊ और पुणे के अपने संयंत्र हफ्ता-हफ्ता भर बंद रखने का निर्णय करना पड़ा है। कपड़ा उघोग में छंटनी का वातावरण बन गया है। इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में टेलीविजन और मोबाइल फोनों की मांग बनी हुई है, पर दूसरे उपकरणों का हाल अच्छा नहीं है। सॉफ्टवेयर व्यवसाय, बीपीआ॓ और कॉल केंद्र जबरदस्त तंगी का सामना कर रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि पूरे औघोगिक वातावरण में डर और निराशा फैले हुए हैं। यही वह ‘मार्केट सेंटीमेंट’ है जो सभी का मूड तय करता है। आजकल यह मूड पस्ती और बेचैन प्रतीक्षा का है। इस मूड का प्रभाव यह पड़ा है कि शेयरों के भाव गिरते जाते हैं और नए उघोग-धंधे शुरू करने की प्रेरणा कमजोर होती जाती है। यह स्थिति हमारे लिए कुछ ज्यादा ही खतरनाक इसलिए है कि हमारा कृषि क्षेत्र पहले से ही पस्त है। किसानों द्वारा आत्महत्या करने की घटनाएं अब भी जारी है। मंदी का असर यह होगा कि कृषि उपज की कीमतों में वृद्धि की दर किसानों के हितों के प्रतिकूल ही बनी रहेगी। यानी हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था का संकट दूर नहीं होगा, बल्कि और गहरा होगा। दूसरी आ॓र, मशीनी उत्पादन को बढ़ाने में हम कोई उल्लेखनीय सफलता हासिल नहीं कर पाए हैं। पिछले कुछ दशकों में इस तरफ ध्यान भी कम दिया गया है। नई औघोगिक इकाइयां बैठाने में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की कोई खास भूमिका नहीं है। बड़े-बड़े औघोगिक घराने सेवा क्षेत्र या फुटकर कारोबार में उतर रहे हैं। जब कृषि और उघोग में विस्तार और वृद्धि का माहौल न हो, बल्कि यथास्थिति को बनाए रखना भी कठिन साबित हो रहा हो, तब इनकी सक्रियता पर निर्भर सेवा क्षेत्र अपनी प्रगति के मामले में कितना निश्चत रह सकता है? यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश की नई र्आिथक अमीरी के पीछे सेवा क्षेत्र की निर्णायक भूमिका है। सेवा क्षेत्र स्वभाव से ही परजीवी होता है। जब खेत में फसल ही नहीं होगी, तो पंछी दाना कहां चुगेगा?अमेरिका में भी मंदी है, दुनिया भर में मंदी है, यह बार-बार दुहराने से भारत की मंदी का जो अपना विशष्टि चरित्र है, उसे छिपाया नहीं जा सकता। अमेरिका, इंग्लैंड आदि देश अमीर हैं। अत: उनका संकट अमीरी का संकट है। अमीरी में थोड़ी कमी आ जाए, तो स्थिति में कोई खास फर्क नहीं पड़ता। जिनकी नौकरियां जा रही हैं, वे एकदम सड़क पर नहीं आ जाते। उनके लिए सहज ही उपलब्ध सामाजिक सुरक्षा का जो स्तर है, वह अस्सी प्रतिशत भारतीयों के रहन-सहन के स्तर से बेहतर है। लेकिन हमारी मंदी पूरी अर्थव्यवस्था की गति को प्रभावित करने वाली है। यूं भी जिस नई अर्थव्यवस्था के बल पर हमारे शासक और योजनाकार कूदते रहे हैं, उसके दायरे में देश की पंद्रह-बीस प्रतिशत आबादी ही आती है। इसी आबादी में शामिल हैं केंद्रीय सरकार के कर्मचारी, जिनकी तनखा दुगुनी के करीब कर दी गई है। वास्तव में मजे तो सिर्फ इन्हीं के हैं, क्योंकि न तो इनकी छंटनी हो सकती है न इनका वेतन कम किया जा सकता है। लेकिन इस वर्ग को भी दो अप्रत्यक्ष नुकसान होने जा रहे हैं। मंहगाई बढ़ने से इनकी आय का वास्तविक मूल्य कम होता जाएगा तथा उघोग-व्यापार में संकट आने से इनके बेटे-बेटियों को उपलब्ध अवसर घटते जाएंगे। इसका प्रभाव पूरे परिवार के रहन-सहन के स्तर पर पड़ेगा। सामाजिक सुरक्षा के अभाव में आत्महत्याएं बढ़ेगी, पारिवारिक तनाव में तीव्रता आएगी और समाज का अपराधीकरण होगा। इसलिए यह सवाल पूछने लायक है : क्या सिर्फ मौद्रिक नीतियों में परिवर्तन से स्थिति को गंभीर होने से रोका जा सकेगा? बैंक ण को सस्ता और सुलभ बनाना एक मृग मरीचिका है। अगर ण चुकाने की क्षमता में वृद्धि नहीं होती है, तो बैंक ण जल्लाद का फांस बन जाता है। अमेरिका अर्थव्यवस्था के संकट का मुख्य कारण यही बताया जाता है -- मकान लेने के लिए बैंक ण को कुछ ज्यादा ही सुलभ कर दिया जाना। शुक्र है कि हमारे बैंक इतने लालची नहीं हैं कि हर ऐरे-गैरे को पकड़ कर कर्ज देते जाएं। इसीलिए हमारे बैंक संकट में नहीं हैं। लेकिन विकास में मंदी आने से सब गुड़ चौपट हो जाएगा। इसलिए मंदी से निपटने के लिए हमें जो कदम उठाने चाहिए उनकी प्रकृति अमेरिका और यूरोप से अलग होगी। इस मामले में हम उनका अनुकरण नहीं कर सकते। हमें यह देखना होगा कि ज्यादा से ज्यादा नौकरियां कैसे पैदा हों और वेतन तथा आमदनी में कैसे कम से कम फर्क लाया जाए। साथ ही, हमारी अर्थव्यवस्था निर्यात-अभिमुख न हो कर अधिक से अधिक आत्मनिर्भर बने।
Monday, November 24, 2008
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