आइए गांव की कुछ ख़बर ले चलें
आँख भर अपना घर खंडहर ले चलें
धूल सिंदूर-सी थी कभी माँग में
आज विधवा-सरीखी डगर ले चलें
लाज लिपटी हुई भंगिमाएँ कहाँ
पुतलियों में बसा एक डर ले चलें
एक सुबहा सुबकती-सिमटती हुई
साँझ होती हुई दोपहर ले चलें
देह पर रोज़ आँकी गई सुर्खियाँ
चीथड़े खून से तर-ब-तर ले चलें
राम को तो सिया मिल ही मिल जाएगी
मिल सकें तो जटायु के पर ले चलें
खेत-सीवान हों या कि हों सरहदें
चाक होते हुए सब्ज़ सिर ले चलें
राजहंसों को पाएँ न पाएँ तो क्या
संग उजड़ा हुआ मानसर ले चलें
देश दिल्ली की अँगुली पकड़ चल चुका
गाँव से पूछ लें अब किधर ले चलें.
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1 comment:
सुंदर काव्य।
हार्दिक शुभकामनाएँ!
दीपावली आप के लिए सुख, समृद्धि और खुशियाँ लाए!
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