Friday, June 13, 2008

कुत्तों का कस्बा



बड़े-बड़ों में बड़े-बड़े,
तंबू ताने पड़े-पड़े,
झूल रहे हैं बल्ली पर,
जम्हूरियत को तड़े-तड़े।

चढ़ा-चढ़ी है,
जो हड़बड़ी है,
तड़ातड़ी है,
सारे सूअर ताड़ रहे हैं
खड़े-खड़े।

कविता-सविता धत्तेरे की,
तू ना मेरा, मैं तेरे की,
खूब अकड़ कर
पूंछ पकड़ कर
कर डालूंगा चढ़े-चढ़े।

तंत्र-मंत्र है,
लोकतंत्र है,
चाहे जिसकी, जो कर डाले,
वे स्वतंत्र हैं,
पके-अधपके सड़े-सड़े....झूल रहे हैं बल्ली पर सब जम्हूरियत को तड़े-तड़े।

कविता की,
या छंद-फंद की...
गांधी की,
या प्रेमचंद की...
ले लो अपनी लकुट-कमरिया
शर्म-हया से गड़े-गड़े.......झूल रहे हैं बल्ली पर सब जम्हूरियत को तड़े-तड़े।

धूमिल पर मत क्रोध करो,
मुक्तिबोध का
शोध करो,
लेनिन-मार्क्स जहां भी हों,
ढूंढो उनको, शोध करो
वरना अपनी चूल हिलाते
रह जाओगे खड़े-खड़े।
.......झूल रहे हैं बल्ली पर सब जम्हूरियत को तड़े-तड़े।
पके-अधपके सड़े-सड़े....
शर्म-हया से गड़े-गड़े....

5 comments:

Anonymous said...

bahut hi aachi kavita hai.or please aap aapna word verification hata le taki ham ko tipani dene mei aasani ho.

Udan Tashtari said...

बहुत सही.

मुंहफट said...

हटा लेंगे, हटा लेंगे word verification, कई दोस्तों की दोस्ती का वास्ता है...

सीता खान said...

मैं उसी बस्ती में रहना
चाहती हूं
पूछना है तुमको,
गालिब कहां हैं?

बालकिशन said...

वाह गुरु!
सहमत हूँ आपसे.
अद्भुत स्टायल है.